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वे ही योगीन्द्र ( समंतभद्र ) त्यागी (दानी) हुए हैं जिन्होंने अर्थी भव्यसमूहको अक्षयसुखकारक रत्नकरंडक ' ( धर्मरत्नोंका पिटारा ) दान किया है ।
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इन सब प्रमाणोंकी मौजूदगी में इस प्रकार के संदेहको कोई अवसर नहीं रहता कि, यह ग्रंथ 'देवागम' के कर्ता स्वामी समंतभद्रको छोड़कर दूसरे किसी समंत - भद्रका बनाया हुआ है, अथवा आधुनिक है । खुद ग्रंथका साहित्य भी इस संदेहमें कोई सहायता नहीं देता । वह, विषयकी सरलताआदिकी दृष्टिसे, प्रायः इतना प्रौढ, गंभीर, उच्च और क्रमबद्ध है कि उसे स्वामी समंतभद्रका साहित्य स्वीकार करने में जरा भी हिचकिचाट नहीं होती । ग्रंथभरमें ऐसा कोई कथन नहीं है जो आचार्य महोदयके दूसरे किसी ग्रंथके विरुद्ध पड़ता हो, अथवा जो जैन सिद्धान्तोंके ही प्रतिकूल हो और जिसको प्रचलित करनेके लिये किसीको भगवान् समंतभद्रका सहारा लेना पड़ा हो। ऐसी हालत में और उपर्युक्त प्रमा
की रोशनी में इस बातकी तो कल्पना भी नहीं हो सकती कि इतने सुदूरभूत काल में- हजार वर्षसे भी पहले किसीने विनावजह ही स्वामी समंतभद्रके नामसे इस ग्रंथ की रचना की हो, और तबसे अबतक, ग्रंथके इतना अधिक नित्यके परिचयमें आते और अच्छे अच्छे अनुभवी विद्वानों तथा आचार्यों के हाथों में से गुजरनेपर भी, किसी ने उसको लक्षित न किया हो । इस लिये ग्रंथके कर्ताविषयका यह संपूर्ण संदेह निर्मूल जान पड़ता है ।
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जहाँतक हम समझते हैं और हमें मालूम भी हुआ है, लोगोंके इस संदेहका सिर्फ एक ही कारण है और वह यह है कि, ग्रंथ में उस ' तर्कपद्धति' का दर्शन नहीं होता जो समंतभद्रके दूसरे तर्कप्रधान ग्रंथोंमें पाई जाती है और जिनमें अनेक विवादग्रस्त विषयोंका विवेचन किया गया है— संशयालु लोग समन्तभ- द्रद्वारा निर्मित होनेके कारण इस ग्रंथको भी उसी रँगमें रंगा हुआ देखना चाहते थे जिसमें वे देवागमादिकको देख रहे हैं । परंतु यह उनकी भारी भूल तथा गहरा भ्रम है । मालूम होता है उन्होंने श्रावकाचारविषयक जैनसाहित्यका कालक्रमसे अथवा ऐतिहासिक दृष्टिसे अवलोकन नहीं किया और न देश तथा समाजकी तात्कालिक स्थिति पर ही कुछ विचार किया है । यदि ऐसा होता तो उन्हें मालूम हो जाता कि उस वक्त - स्वामी समन्तभद्रके समय में— और उससे भी पहले श्रावक लोग प्रायः साधुमुखापक्षी हुआ • स्वतंत्र रूपसे ग्रंथोंको अध्ययन करके अपने मार्गका निश्चय - नहीं होती थी; बल्कि साधु तथा मुनिजन ही उस वक्त, धर्म
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करते थे— उन्हें
करने की जरूरत
विषय में, उनके
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