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सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः। पंचगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥
-रत्नकरंडक । दर्शनिकः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः पंचगुरुचरणभक्तः सम्यग्दर्शन
शुद्धश्च भवति ।
-चारित्रसार । उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥
-रत्नकरंडक। उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि नि:प्रतीकाररुजायां । धर्मार्थ तनुत्यजनं सल्लेखना।
-चारित्रसार। यह 'चारित्रसार ' ग्रन्थ उन पाँच सात खास माननीय* ग्रन्थोंमेंसेहै जिनके आधारपर पं० आशाधरजीने सागरधर्मामृतकी रचना की है, और इसलिये उसमें रत्नकरंडकके इस प्रकारके शब्दानुसरणसे रत्नकरंडककी महत्ता, प्राचीनता और मान्यता और भी अधिकताके साथ ख्यापित होती है ।
और भी कितने ही प्राचीन ग्रंथों में अनेक प्रकारसे इस ग्रंथका अनुसरण पाया जाता है, जिनके उल्लेखको विस्तारभयसे हम यहाँ छोड़नेके लिये मजबूर हैं।
(७) श्रीवादिराजसूरि नामके सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्यने अपना पार्श्वनाथचरित' शक संवत् ९४७ में बनाकर समाप्त किया है । इस ग्रंथमें साफ तौरसे 'देवागम' और 'रत्नकरंडक' दोनोंके कर्ता स्वामी समंतभद्रको ही सूचित किया है । यथा
'स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहं । देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदश्यते ॥ स्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यसुखावहः।
अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥ अर्थात्-उन स्वामी ( समंतभद्र ) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक नहीं है जिन्होंने 'देवागम' के द्वारा आज तक सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है।
* वे ग्रन्थ इस प्रकार हैं-१ रत्नकरंडक, २ सोमदेवकृत यशस्तिलकान्तर्गत उपासकाध्ययन, ३ चारित्रसार, ४ वसुनंदिश्रावकाचार, ५ श्रीजिनसेनकृत आदि.. पुराण, ६ तत्त्वार्थसूत्र आदि ।
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