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भवेत् ॥” इत्यादिकात् । किंविशिष्टात् ? शिष्टानुशिष्टात् । शिष्टा आप्तोपदे शसंपादितशिक्षाविशेषाः स्वामिसमन्तभद्रादयः तैरनुशिष्टागुरुपर्वक्रमेणो
पदिष्टात् ।
इस उल्लेख से यह बात भी स्पष्ट है कि विद्वद्वर आशाधरजीने रत्नकरंडक नामके उपासकाध्ययनको 'आगमग्रंथ' प्रतिपादन किया है ।
एक स्थान पर आपने मूढताओंका निर्णय करते हुए, • कथमन्यथेदं स्वामिसूक्तमुपपद्येत' इस वाक्य के साथ रत्नकरंडकका 'भयाशास्नेहलोभाच्च इत्यादि पद्य नं० ३० उद्धृत किया है और उसके बाद यह नतीजा निकाला है कि इस स्वामिसूक्त के अनुसार ही ठक्कुर ( अमृतचंद्राचार्य ) ने भी ' लोके शास्त्राभासे' इत्यादि पद्यकी ( जो कि पुरुषार्थसिद्धयुपायका २६ वें नंबरका पद्य है ) घोषणा की है ।
यथा - " एतदनुसारेणैव ठक्कुरोऽपीदमपाठीत्-
लोके शास्त्राभाले समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टिस्वम् ॥
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इस उल्लेखसे यह पाया जाता है कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय जैसे माननीय ग्रंथ में भी रत्नकरंडकका आधार लिया गया है और इस लिये यह ग्रंथ उससे भी अधिक प्राचीन तथा माननीय है ।
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( ५ ) श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवने, नियमसारकी टीकामें, ' तथा चोक्तं श्रीसमंतभद्रस्वामिभिः’'उक्तं चोपासकाध्ययने' इन वाक्योंके साथ, रत्नकरंडककें 'अन्यूनमनतिरिक्तं' और 'आलोच्य सर्वमेनः ' नामके दो पद्य उद्धृत किये हैं, जो क्रमशः यहाँ द्वितीय परिच्छेद में नं ० १ और पाँचवें परिच्छेदमें नं० ४ पर दर्ज हैं। पद्मप्रभमलधारिदेवका अस्तित्व समय विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके लगभग पाया जाता है । इससे यह ग्रंथ आजसे आठसौ वर्ष पहले भी स्वामिसमंतभद्रका बनाया हुआ माना जाता था, यह बात स्पष्ट है ।
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( ६ ) विक्रमकी ११ वीं शताब्दी ( पूर्वार्ध) के विद्वान् श्रीचामुंडरायने ' चरित्रसार' में रत्नकरंडकका 'सम्यग्दर्शनशुद्धाः' इत्यादि पद्य नं० ३५ उद्धृत किया है । इतना ही नहीं बल्कि कितने ही स्थानों पर इस ग्रंथके लक्षणादिकोंको उत्तम समझकर उन्हें शब्दानुसरणसहित अपने ग्रन्थका एक अंग भी बनाया है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं
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