Book Title: Ratnakarandaka Shravakachara
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 12
________________ छठे 'गृहस्थ समंतभद्र' थे जिनका समय विक्रमकी प्रायः १७ वीं शताब्दी पाया जाता है। वे उन गृहस्थाचार्य नेमिचंद्रके भतीजे थे जिन्होंने 'प्रतिष्ठातिलक'नामके एक ग्रंथकी रचना की है और जिसे 'नेमिचंद्रसंहिता' अथवा 'नेमिचंद्रप्रतिष्ठापाठ' भी कहते हैं और जिसका परिचय अप्रेल सन् १९१६ के जैनहितैषीमें दिया जा चुका है । इस ग्रंथमें समंतभद्रको साहित्यरसका प्रेमी सूचित किया है और यह बतलाया है कि वे भी उन लोगोंमें शामिल थे जिन्होंने उक्त ग्रंथके रचनेकी नेमिचंद्रसे प्रार्थना की थी। संभव है कि 'पूजाविधि' नामका ग्रंथ जो 'दिगम्बरजैनग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ' नामकी सूचीमें दर्ज है वह इन्हींका बनाया हुआ हो। (२) रत्नकरंडकके प्रणेता आचार्य समंतभद्रके नामके साथ 'लघु, 'चिक्क, 'गेरुसोप्पे, 'अभिनव ' या 'भट्टारक' शब्द लगा हुआ नहीं है और न ग्रंथमें उनका दूसरा नाम कहीं 'माघनंदी' ही सूचित किया गया है। बल्कि ग्रंथकी संपूर्ण संधियोंमें-टीकामें भी उनके नामके साथ 'स्वामी' शब्द लगा हुआ है और यह वह पद है जिससे 'देवागम'के कर्ता महोदय खास तौरसे विभूषित थे और जो उनकी महती प्रतिष्ठा तथा असाधारण महत्ताका द्योतक है । बड़े बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंने उन्हें प्रायः इसी (स्वामी) विशेषणके साथ स्मरण किया है और यह विशेषण भगवान् समंतभद्रके साथ इतना रूढ जान पड़ता है कि उनके नामका प्रायः एक अंग हो गया है। इसीसे कितने ही बड़े बड़े विद्वानों तथा आचार्यों ने, अनेक स्थानोंपर, नाम न देकर, केवल 'स्वामी' पदके प्रयोगद्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है * और इससे यह बात सहजहीमें समझमें आ सकती है कि 'स्वामी' रूपसे आचार्य महोदयकी कितनी अधिक प्रसिद्धि थी। * देखो-वादिराजकृत पार्श्वनाथचरितका 'स्वामिनश्चरितं तस्य ' इत्यादि पद्य नं० १७; पं० आशाधरकृत सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृतकी टीकाओंके 'स्वाम्युक्ताष्टमूलगुणपक्षे, इतिस्वामिमतेन दर्शनिको भवेत् , स्वामिमतेनत्विमे ( अतिचाराः), अत्राह स्वामी यथा, तथा च स्वामिसूक्तानि 'इत्यादि पद; न्यायदीपिकाका' 'तदुक्तं स्वामिभिरेव' इस वाक्यके साथ देवागमकी दो कारिकाओंका अवतरण और श्रीविद्यानंदाचार्यकृत अष्टसहस्री आदि ग्रंथोंके कितने ही पद्य तथा वाक्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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