Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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चौद्रका टीका प्रथम श्लोक उसके विषयमें विशेष न लिखकर केवल उनकी असाधारमा विभूतिके सम्बन्ध में ही कुछ लिखना उसका दिग्दर्शन कराना उचित प्रतीत होता है।
सभी तीर्थकर अपनी विभृति के कारण लोकोत्तर हैं । भिन्न २ आचार्योंने उनकी विभूतिको भिव २ प्रकार से गिनाया है। फिर भी पाठक देखेंगे कि वे सभी कथन परस्पर में निरुद्ध नहीं सभी आपसमें अविरुद्ध है। किसी आचायने सामान्यतया एक प्रभुता के नामसे ही उनके लोकांतर माहात्म्पका वर्णन किया है। किसी प्राचार्यने अन्तरंग और बहिरंग इस तरह दो भागों मे उनकी महत्ता को विभक्त कर दिया है। शारीरिक, देवकन और केवल प्रान निमितक इसतरह तीन भागोंमें भी उनके अतिशय को विभक्त किया जा सकता है किन्हीं प्राचायों न शरीर वाणी भाग्य
और आत्मा के सम्बन्ध को लेकर उनके अभाधारण ऐश्वर्य को चार भागों में विभक्त कर दिया है । पांच कल्याणकों की अपेक्षा पांच भेदों में, नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा छह भेदों में, और सात परमस्थानों की अपेक्षा उनके ऐश्वर्य या माहात्म्य को सात भेदोंमें भी परिगणित किया जाता है। आठ मो में भी प्राचार्यों ने गिनाया है। इस तरह तीथकर भगवान की "श्री".-विभूति के सम्बन्ध में प्राचायों ने सो जो उल्लेख किया है वह उनके असाधारण माहात्म्म को प्रकट करता है।
याप भगवान् श्री वर्धमान स्वामी के समकालान किसी किसी अन्य धर्मप्रवर्तक ने भी इस महता को अपने में बताने का प्रयल किया था परन्तु उनका यह कार्य किस तरह अस्वाभाविक
और असफल एवं अमान्य सिद्ध या यह उनके उन का ही सूक्ष्मतया एवं निएन भाव से अध्ययन करने पर विदित हो जाता है। यही कारण है कि श्री समन्तभद्र स्वामी ने आजमीमांसा में कहा है कि
देवागम-नभोपानशामरादिविमूनयः ।
मांश विष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ।।१।। इत्यादि । १-तित्थयराण पहत्तं. हा बलदेवके वाण च । दुबल व सावत्ता तिरिणच परभाग पत्ताई : ना. घ. टी० २ अध्यात्म दहि रायप विप्रहादेमहादयः । प्रान। आम्मान पधिनियतिमानोऽपात्मनो विमा शादिमहोदयः शश्वनिःस्वेदत्वादिः परापनत्वान् । ततो बहिर्गबाद फवृष्ट्यादि बहिरंगी देयो पत्नीनवान् । अष्टमहसी -अष्टोसरसहनलक्षणादयो दश महाजाः शारीरातिशयाः। देवकृताश्चनुदशांतशयाः ।....................... कंवलज्ञाननिमित्तकाः दशातिशयाः ।। - प्रवचनसार गाथा १०० के अनुसार व्य गुण पाय इस तरह से भी तीन भेद कहे जा सकते है या जो जाणदि अहित दव्यत्त गुणत्तपन्जयत्तेह । मो' जाणदि अप्पाणं मोहो खनु जादि तस्य लयम् ।
४-आदिपुराण।
५-६६.सा. ज. ६.३ तेजो लिट्रीणाणं इद्री मोक्ख तडेव ईमरियं । तिहुयम पहाण :यं माइप्प जस्स सो अरिहो। इसमें मात अतिशयही गिनाये हैं। माहात्म्यको पृथक गिनने से आठ हो सकते है। अथवा अनन्तचतुष्टय, शारीर, वाचनिक भाग्य और दिव्य इस तरह भी पाठ हो सकते हैं!
७-इसके लिये खो बा० कामताप्रसाद जी द्वारा लिखित "भगवान महाबीर और पहात्मा बुद्धा ८-यहांपर प्रयुक्त "मायाविषु 'शब्दका स्वामी विद्यानन्दन अष्टमहलीटीका में "मष्फरिप्रभृतिषु साप
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