Book Title: Pruthvichandra Charitram
Author(s): Satyaraj Gani, Mangalvijay
Publisher: Chandulal Punamchand

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1000000తంతుతం 000000000 तथा च-मनोवाकर्मभिर्यद्यस्मिन् भवे न मया निजम् । सच्छीलं खण्डित तन्मे बाहू स्तां पुनरुद्भवौ ॥ १४० ॥ लसच्छीलप्रभावेन सिन्धुदेवी दयापरा । पुननवीकरोति स्म तस्या बाहुद्वयं क्षणात् ॥ १४१ ॥ तदर्शनात् सुधासिक्तेवापूर्व तनुशर्म सा । सुरीवानुभवन्ती स्वपाणिभ्यां सुतमाहीत् ॥ १४२ ॥ स्तनन्धयं निजोत्सङ्गमारोप्यामोदत क्षणम्। पुनस्तथाविधं दुःखं स्मृत्वा सा व्यलपद् भृशम् ॥ १४३ ॥ किं जीवितेन मे येनाभवं परिभवास्पदम् । किन्त्वनाथं सुतं मोक्तुं न शक्ता क्षणमप्यमुम् ॥ १४४ ॥ यदन्यचिन्तितं दैवादेशादन्यदभूदिह । नाभाग्यवतां जातु जायत चित्तचिन्तितम् ॥ १४५ ॥ पुत्रजन्ममहं कर्ता पिता चित्ते ममेत्यभूत् । विपाको दारुणस्तत्र सातो ही ! विधेशात् ॥ १४६ ॥ हा ! धिक् तुच्छमनोभावान् निःस्नेहान् निघणान् नरान् । विचारयन्ति ये कृत्याकृत्ये नैव कदाचन ॥ १४७॥ यतः-तत्क्षणदर्शितरागास्तत्क्षणसंपादितोरुसन्तापाः । दिनकर इवाभिवन्द्या दूरस्थैरेव यत्पुरुषाः ॥ १४८ ॥ विलपन्तीति केनापि वीक्षिता तापसेन सा । नीता कुलपतेरग्रे पृष्टाख्यच्चरितं निजम् ॥ १४९ ॥ रुदन्त्याश्वासिता तेन धीरतामवलम्बय । तापस्यन्तर्गता भद्रे ! प्रपालय निजागजम् ॥ १५० ॥ सर्व संपत्स्यते नूनमचिराद्रुचिरं तव । इति तत्र कलावत्यप्यस्थात् कुलपतेगिरा ॥ १५१ ॥ इतस्ता द्रुतमागत्य सकेयूरं भुजद्वयम् । छिन्नं छन्ने नृपस्याग्रे मुमुचुः श्वपचस्त्रियः ॥ १५२ ॥ ള്ള ॥७॥ For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155