Book Title: Pruthvichandra Charitram
Author(s): Satyaraj Gani, Mangalvijay
Publisher: Chandulal Punamchand
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ध्वीचन्द्र
चरितम्॥
0000000000000000000000000
देशनान्तेऽथ पप्रच्छ गुरून् भूपः कृतानतिः। भगवन्! माग्भवे चक्रेऽनया किंकर्म कर्कशम् ? ॥ २०५ ॥ निरागसोऽपि येनास्या अहमच्छेदयं भुजौ । गुरुराख्यद् विदेहेत्र महेन्द्रपुरपत्तनम् ॥ २०६ ॥ ( युग्मम् ). तत्रासीत् त्रासितारातिनृपतिर्नरविक्रमः । पत्नी लीलावती तस्य तयोः पुत्री सुलोचना ॥ २०७ ॥ प्राप्तापि यौवन साभूत केलिकौतुककर्मठा। शुद्धशीला सलीलापि कृतहीला मनोभवे ॥ २०८ ॥ पितुरङ्कस्थितान्येधुर्नपतेरुपदागतम् । कृत्वा कीरं करे कनं कुमारी तमपाठयत् ॥ २०९ ॥ क्रीडायै तं गृहीत्वाथ न्यास्थत् सा स्वर्णपअरे । दाडिमीहारहरादिफलाली चाप्यभुजत् ।। २१०॥ स्वास्थं पारस्थं वा तमेकं मेचकं शुकम् । उरःस्थं वा करस्थं वाऽपाठयत् सा सदा मुदा ॥ २११॥ आसने शयने याने भोजने राजसंसदि । आत्मानमिव तं कीरं साऽमुश्चन्न कदाचन ॥ २१२ ॥ अन्यदा सा पुरोद्याने कुसुमाकरनामनि । शुकेन पारस्थेन सखीभिश्च युता गता ॥ २१३ ॥ जिनेन्द्रालयमालोक्य तत्र साथ सुलोचना । सीमन्धरजिनं नत्वा तुष्टा तुष्टाव भक्तितः ॥ २१४ ॥ जिनाओं वीक्ष्य कीरोऽपि जातजातिस्मृतिस्तदा । प्राग्जन्म निजमस्मार्षीद् यदभूवं यतिः पुरा ॥ २१५ ॥ अधीत्य शुद्धसिद्धान्त कृतोपधिपरिग्रहः । विराधितवतो मृत्वाऽभूवं कीरोऽत्र जन्मनि ॥ २१६ ॥ धिग्मां यद्धस्तसंस्थेऽपि ज्ञानदीपे विभास्वति । मोहान्धो न्यपतं तिर्यग्भवावटसुसङ्कटे ॥ २१७ ॥
000c00c0100ccc0000000
-
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155