Book Title: Pruthvichandra Charitram
Author(s): Satyaraj Gani, Mangalvijay
Publisher: Chandulal Punamchand

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरितम्॥ అంతంతంలో తితిలో हा देव ! निघृणा भूत्वा कथमेवमचिन्तितम् । ददासि दारुणं दुःखं फलं वैतत्स्वकर्मणः ॥ १२७ ॥ आर्यपुत्र ! तवापोयमसमीक्षितकारिता । नोचिता यन्महान्तोत्र युक्तायुक्तविचारिणः ॥ १२८ ॥ जानन्त्या ििप्रयं किश्चित् प्रिय नाचरित मया। अजानन्त्या कृतं यत्तु तत्र दण्डः क ईदृशः? ॥ १२९ ॥ कर्णेजपेन केनापि शि, जाने न तत्प्रिय । मा में थाः शीलमालिन्यं पुनः स्वप्नेऽपि यत्कृतम् ॥ १३ ॥ तत्प्रेम प्रतिपत्तिः सा तदालपनमञ्जसा । सर्वमेकादे देव ! त्वया निस्तारितं स्यात् ॥ १३१ ॥ इति बहुधा विलपन्त्याः सहसा जठरं समाकुलीभूतम्। ज्ञात्वा प्रसवावसरं त्रपयागादापगातीरम् ॥ १२ ॥ तत्रान्तर्वनगुल्मं प्राभूत सुतं सुतप्तहेमाभम् । तं वीक्ष्य विशालाक्षं मुमुदेऽमन्दं मृगाक्षी सा ।। १३३ ॥ पन:- -आपनतमपि मुखयति हसयति गुरुशोकनिभृतहृदयमपि । मृतमपि जीवयतितरामपत्यसञ्जीवनी जीवम् ॥ १३४॥ अत्रान्तरे स दारक इतस्ततः सञ्चरन् नदीतीरे । विलुलोठ सापि पद्भ्यामधात् कयं कथमपि प्रेम्णा ॥१३५ ॥ भगति सकरुणं निघृण! हा दैव! कृतेन किमियतापि त्वम् । तुष्टोऽसि न यहत्त्वा सुतमपहरसि स्वयं मेऽद्य ॥ १३६ ॥ तद् व्याघ्रयोऽपि वरं ताः शुन्योऽप्यथवा वरं रदाग्रेषु । या धृत्वा स्वापत्यं प्रयान्ति निजमीप्सितं स्थानम् ॥ १३७॥ परमेश्वरि! नदि! मातस्तुभ्यं प्रणताम्मि सविनयमिदानीम्। मा मत्पुत्रमपहियास्त्वमसि यतो जीवजीवातुः ॥ १३८ ॥ यादे जयाते जगति शीलं यादि तच्च मया कलङ्कितं न मनाक। तद्देवि! बोधनयने ! कुरु बालकपालनोपायम् ॥ १३९ ॥ DO00000000003000000000000 For Private and Personal Use Only

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