Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 13
________________ आगम कथा साहित्य/3 3. गणितानुयोग - इसमें जम्बूद्रीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ हैं। 4. द्रव्यानुयोग - इसमें सूत्रकृतांग, स्थानांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगदार ___ आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। अनुयोगों में आगम ग्रन्थों का यह विभाजन भी मौटे तौर पर ही है। क्योंकि एक ग्रन्थ में कई विषय पाये जाते हैं। आगम साहित्य के विषयों को इन चार अनुयागों में विभाजित करने के लिए प्रत्येक आगम का अन्तरंग अध्ययन करने के उपरान्त उसके विषय को इन चार अनुयोगों में विभाजित करना होगा। प्रत्येक ग्रन्थ की विभाजित सामग्री को अलग-अलग अनुयोगों में संकलित करनी होगी तभी आगम-ग्रन्थों की सामग्री का विभाजन अनुयोगों के अनुसार हो सकेगा। आगम साहित्य के मर्मज्ञ मुनि कन्हैयालाल जी "कमल" ने यह महत्वपूर्ण तथा ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ गणितानुयोग में आगम साहित्य की गणित सम्बन्धी सभी सामग्री एकत्र कर दी है। इस गणितानुयोग ग्रन्थ का विद्वत-जगत् में अच्छा आदर हुआ है। पंडतरत्न मुनि कमल जी ने विगत वर्षों में आगम साहित्य से धर्मकथानुयोग की सामग्री संकलित की है, जिसे उन्होंने "धम्मकहाणुओगो" नाम दिया है। इस संकलन में निम्नांकित आगम ग्रन्थो से सामग्री ली गयी है अंग-गन्य - आधारांगसूत्र, सूत्रकृतांग, स्थानांग समवायांग, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग, अन्तकृत, उनुत्तरोपपातिक, विपाकसूत्र । उपाग-ग्रन्थ - औपपातिक, राजप्रश्नीय, जम्बूद्रीपप्रज्ञप्ति. निरयावालिका, पुष्पिका, वृष्णिदशा, पुष्पचूलिका मूलसूत्र - उत्तराध्ययनसूत्र, नन्दीसूत्र। छेदसूत्र - दशाश्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र । इस तरह "धम्मकहाणुओगो" में आगम साहित्य के प्रायः उन सभी ग्रन्थों से सामग्री संकलित कर ली गयी है, जिनमे धर्मकथा विद्यमान हैं। धर्मकथाओ पर विवेचन करने से पूर्व आगम ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है। आचारांगसूत्रअर्धमागधी आगम साहित्य में अंग ग्रन्थों में आचारांगसूत्र प्रथम अंग ग्रन्थ है। जैन परम्परा की मान्यता एवं आगम-साहित्य के गवेषक विद्वानों की खोज के अनुसार यह प्रायः निश्चित है कि भगवान् महावीर ने सर्वप्रथम आचारांग में संग्रहीत विषय का ही उपदेश दिया था। अतः उनकी वाणी इसमें सुरक्षित है। जैन आचारशास्त्र का यह आधारभूत ग्रन्थ है। इसमें प्रकारान्तर से सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चरित्र की मूलभूत शिक्षाएँ संकलित हैं। भगवान् महावीर की साधना-पद्धति के ज्ञान के लिए आचारांग सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें अर्धमागधी भाषा के प्राचीन रूप सुरक्षित है। इसकी सूत्रशैली ब्राह्मण ग्रन्थों की सूत्रशैली से मिलती-जुलती है। आचारागसूत्र के वाक्य कई स्थानों पर परस्पर सम्बन्धित नहीं हैं तथा कुछ पद एवं पद्य उद्धृत अंश जैसे भी प्रतीत होते है। इससे विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि आचारांग के पहले भी जैन परम्परा का कोई साहित्य रहा है, जिसे पूर्व-साहित्य के नाम से जाना जाता है। आचारागसत्र कथा-साहित्य की दृष्टि से भी उपयोगी है। इसमें ऐसे कई उपमान या रूपक दृष्टिगोचर होते हैं, जो प्राकृत कथाओं के लिए कथा-बीज हैं। छठवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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