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मधुबिन्दु - अभिप्राय का विकास / 111
लता जीविताशा (आयु)। हाथी सम्वत्सर है। उसके छः मुख छः ऋतुएं एवं बारह पैर 12 माह । दो चूहे दिन रात हैं। मधु मक्खियां कामनाएं हैं और मधु की धाराएं कामरस, जिसमें मानव डूब जाते हैं। 10 उपर्युक्त स्पष्टीकरण न केवल प्रतीकों की व्याख्या करता है किन्तु कुछ नयी सूचनायें भी देता है। स्पष्टीकरण में सर्पों को विविध रोग और चूहों को दिनरात का प्रतीक स्वीकारा है. जबकि उक्त दृष्टान्त में सर्पों और चूहों का उल्लेख तक नहीं है। इसी तरह की असंगति उक्त कथानक में भी है। हाथी को सफेद और काला दोनों रंगवाला कहा है 1 इन असंगतियों से कुछ समभावनायें जन्मती हैं। यथाः
(1 ) दृष्टान्त - अंश महाभारतकार ने किसी एक स्रोत से ग्रहण किया है और स्पष्टीकरण अंश किसी दूसरे स्रोत से । अथवा (2) दृष्टान्त अंश के श्लोकों के सम्पादन में कोई श्लोक छूट गया है, जिसमें सर्प और चूहों का भी उल्लेख रहा होगा।
साहित्तियक उल्लेख की दृष्टि से मधुबिन्दु अभिप्राय का उत्स महाभारत के इस प्रसंग को स्वीकारा जा सकता है, जब तक इस प्रसंग के किसी अन्य स्रोत का पता नहीं चलता । किन्तु मधुबिन्दु अभिप्राय के निर्माण में जो एक दार्शनिक विचार धारा निहित है, यदि उस पर विचार किया जाय तो इस अभिप्राय का उत्स बहुत प्राचीन ठहरता है।
इस अभिप्राय के निर्माण में इस विचारधारा का कि संसार में मेरु पर्वत के सदृश दुख और राई के दाने बराबर सुख है, प्रमुख योगदान है। पुनर्जन्म और मोक्ष को स्वीकारने वाले प्रायः सभी दर्शन इस बात को स्वीकार कर चलते हैं कि सांसारिक जीवन में जीव दुख का अधिक और सुख का कम अनुभव करता है । सांसारिक सुख अन्ततः दुखरूप ही हैं। शाश्वत सुख मोक्ष की प्राप्ति है। इस विचार धारा से मधुबिन्दु अभिप्राय का धनिष्ठ सम्बन्ध है। इस सन्दर्भ में इस अभिप्राय का उत्स निश्चित रूप से आरण्यक एवं ब्राह्मणों से होता हुआ वैदिक विचारधारा तक पहुँच जाता है।
सूक्ष्मता से विचार करने पर इस अभिप्राय का श्रमण विचारधारा से अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होता है। वैदिक विचारधारा में संसार दुखरूप है, किन्तु सांसारिक सुखों की अवहेलना भी नहीं की जा सकती। इसलिये वैदिक सन्यस्त जीवन गृहस्थ सुखों से जुड़ा हुआ है जबकि श्रमण विचारधारा सन्यस्त जीवन में किसी भी गृहस्थ सुख को स्वीकार नहीं करती। इसीलिए उसके लिए सांसारिक दुख मेरू सदृश और सुख सर्षप दाने के बराबर है। 12 मधुबिन्दु अभिप्राय के रूपान्तरों में इन दोनों विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व हुआ है। महाभारत में कुंए का ब्राह्मण नाना दुःखों को सहता हुआ मधु की धाराओं का पान करता है 13, एक-दो बूंद मधु का नहीं । अतः वह मधुधाराओं के सदृश नाना सुखों के लिए सांसारिक दुःखों को सह भी सकता है, जबकि प्राकृत कथाओं के कूपनर को बड़ी प्रतीक्षा के बाद मधु की एक बूंद प्राप्त होती है। 14 अतः इतने से सुख का त्यागकर वह पूर्ण रूप से विरक्ति हो सकता है। अभिप्राय की यह फलश्रुति है । अतः विचारधारा के आधार पर मधु बिन्दु अभिप्राय श्रमण परम्परा की प्राचीनता के साथ जुड़ जाता है।
विकास :
मधुबिन्दु - अभिप्राय की रुपान्तर - परम्परा निरन्तर विकसित होती रही है। यह एक इतना
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