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मधुबिन्दु-अभिप्राय का विकास/113
(4) और यह कल्पना सिरिजम्बूसामिचरियं में साकार हो गयी है। उसमें विद्याधर और विद्याधरी उस पथिक के सकट से द्रवित होते हैं और उसे संकटमुक्त करने का प्रयत्न करते
है।18
लौकिक प्रयोग : मधुबिन्दु अभिप्राय की विकास-यात्रा लोकमानस से गुजरी हुई प्रतीत होती है। क्योंकि इसका जो मूल कथानक है, वह शुद्ध लौकिक है। बाद में उसमें पुराण-कथा और सम्प्रदायकथा के तत्व सम्मिलित हुए हैं। तृष्णा से सम्बंधित अनेक लोक कथाएं प्रचलित हैं। पंचतन्त्र की कबूतरों की कहानी इससे अधिक सम्बन्धित है। आज भी लोक में शहद लिपटी तलवार का मुहावरा प्रचलित है। यह स्पष्ट रूप से मधुबिन्दु दृष्टान्त का लौकिक संक्षिप्तीकरण है। इसमें शहद मधुविन्दु का प्रतीक है, तलवार के अन्तर्गत उक्त दृष्टान्त के सभी संकट आ गये हैं।
उक्त अन्तिम दो रूपान्तर, जिनमें विद्याधर व विद्याधरी की सहायता का उल्लेख है, दृष्टान्त के लौकिक विकास से ही सम्बन्धित हैं। प्रायः अधिकांश लौकिक कथाओं में हम पाते हैं कि जब कोई व्यक्ति अधिक कष्ट पा रहा होता है तो शिवपार्वती प्रकट होते है। पार्वती शिव से उस संकटस्त प्राणी को मुक्त करने का आग्रह करती हैं और शिव उस प्राणी को संकट मुक्त करते हैं।19 सिरिजंबूसामिचरियं में विद्याधर और विद्याधरी का उल्लेख पूर्णरूप से शिव-पार्वती का रूपान्तर है। थामसन ने मोटिफ इन्डेकस् में धर्मग्गाथा- अभिप्राय के अन्तर्गत संसार के संकट नामक अभिप्राय का उल्लेख किया है20 तथा शरत्चन्द्र मित्र ने बर्न महोदया के सत्तर कथा-मानक रुपों में तीन और भारत के कथा-मानक रूप जोड़े हैं, जिनमें एक 'शहद की बूद नामक कथा-मानक रूप भी है21 इन दोंनो उल्लेखों के विस्तृत-विवेचन इस समथ उपलब्ध नहीं हो सके अन्यथा मधुबिन्दु अभिप्राय के लौकिक विकास पर कुछ और प्रकाश पड़ता।
कलागत प्रयोग : भारतीय कला में सामान्य रूप से मानवीय रागात्मक वृत्तियों से सम्बधित कलाकृतियां अधिक पायी जाती हैं। क्योंकि कला का प्रयोग अधिकांश सौन्दर्य-भावना की तृप्ति के लिए होता है, भले ही उसके पीछे दार्शनिक चिंतन की एक निश्चित परम्परा विद्यमान रही हो। यत्र-तत्र आध्यात्म-चितन से संबंधित अनेक कलाकृतियां व चित्र आदि उपलब्ध होते हैं। जैन चित्रकला इस सन्दर्भ में अपनी निजी विशेषता रखती है। उसने धर्माश्रय और राजाश्रय पाकर आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक तथा प्राकृतिक रहस्यों का सूक्षम ढंग से उद्घाटन किया है।
जैन चित्रकला की इस व्यापकता के परिवेश में निश्चित रूप से मधुबन्दु अभिप्राय एकाधिक बार चित्रित हुआ होगा। मन्दिरों, उपासरों की भित्तियों, प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों तथा उनके आवरणों पर मधुबिन्दु अभिप्राय का चित्रांकन उपलब्ध होने की अधिक सम्भवना है। यह अनेक जगह उपलब्ध है भी, किन्तु साधनहीनता और समयाभाव के कारण उनका मूल्यांकन यहाँ नहीं किया जा सका। । श्री अगरचन्दजी नाहटा के कला-भवन में एक पुस्तक-पट्टिका में मधुबिन्दु अभिप्राय चित्रित देखने को मिला। यह चित्र भितिचित्रों से पूर्व का एवं लगभग 18 वीं सदी का है। इसमें मधुविन्दु
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