Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 126
________________ 116/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन वश का नहीं है। इसके लिए सामूहिक और योजना-बद्ध प्रयत्न अपेक्षित है। पाश्चात्य विद्धन के विचारों का अनुकरण करने की बजाय यदि उनकी क्षमता और कार्य-पद्धति का अनुकरण किया जाय तो अपने साहित्य का मूल्यांकन हमें दूसरों की आंखे से नहीं देखना पड़ेगा। सन्दर्भ 1. वाइड अवेकस्टोरीज मे दिए गये नोट्स ओसन आव द स्टोरीज, भाग 1-101 2. वसुदेवहिण्डी कयोत्पत्ति 8 एवं ज्ञाताधर्मकया। 3. हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर विन्तरनित्स पार्ट-1 पृ. 408 4. वही, पृष्ठ 4091 5. प्राकृत साहित्य का इतिहास - डा. जगदीशचन्द्र 6. यथा संसारगहनं बदन्ति महर्षिभिः स्त्रीपर्व 5-2 7. छान्दोग्योपनिषद् (3-2 एवं 6-9) 8. वतमिगजातक (2-42), गुम्बियजातक (3-366) आदि । 9. स्त्रीपर्व, अ 5, श्लोक 1-241 10. वही, अ.6 श्लोक 1-14 11. महाभारत अ.5, श्लोक 14 12. परिशिष्ट पर्व 2-1901 13. तेषं मधूनां वहु धारा प्रसवते तदा। आलम्बमानः स पुमान् धारां पिवति सर्वदा।। 14. बातविधूया महुबिन्दू तस्स पुरिसम्स केई मुहमाविसंति, ते च आसाएइ । बसुदेवहिंडी, पृ.8। 15. (1) कथोत्पति, पृष्ठ 81 (2) द्वितीय विश्राम (3) द्वितीय भव (4) 72 वीं गाथा (5) गाया 94। (6) 2.5.211 (7) 3, 841 (8) 92 कथानक (9) सांतवां उद्देश्य (10) पद्य 2, 90-2181 (11) श्लोक 321-441 (12) गद्य पृ. 17-18 (13) पृ. 381 (14) सातवीं ढाल। (15) मधुविन्दुयानि सज्जाय। 16. विशेषरूप से दृष्टव्य (1) हिस्टरी आव इण्डियन लिटरेचर 1 पृ. 408 (2) श्री जैनसाहित्य-प्रकाश, वर्ष-12, अं. 5, पृ. 131 (3) बृहत्कथाकोश, ए.एन. उपाध्ये पृ. 388 । 17. परिशिष्टपर्व (गद्य-शुभंकरविजय) पृ. 35-39 18. तेण समरणं कोवि विज्जाहरे सभारिए विमाणट्ठिए विज्जाए अंबरतलं गच्छमाणे वडपायवोपरि उवागए। पृ. 17-18 19. लोक साहित्य विज्ञान- डा. सत्येन्द्र, संकटभंजन अभिप्राय। 20. मोटिफ-इन्डेक्स-धर्मागाथा-अभिप्राय ए-1000-ए. 1099 21. लोक साहित्य विज्ञान, पृ. 244 22. श्री नीरज जैन, सतना की सूचना के आधार पर। 23. षड्वक्त्रः कुन्जरों राजन् स तु सम्वत्सरः स्मृतः । मुखानि ऋतवो मासाः पादा द्वादश कीर्तिताः ।। -6, 10-11 24. शिशुपालबध, 4.20 25. एलिफेन्ट एण्ड लोटस, पृष्ठ, 8 26. हिस्टरी आफ इण्डियन लिटरेचर, पृ.408 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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