Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 38
________________ 28/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन उपदेशात्मक और आध्यात्मिक प्रवत्ति है। किन्तु क्रमशः इसमे विकास होता गया है। उपदेश, अध्यात्म, चरित, नीति से आगे बढ़कर कुछ आगमों की कथाएँ शुद्ध लौकिक और सार्वभौमिक हो गयी हैं। यही कारण है कि इन कथाओं को यदि स्वरूप-मुक्त कहा जाय तो उनके साथ अधिक न्याय होगा। आल्सडोर्फ ने आगमिक कथाओं की शैली को "टेलिग्राफिक-स्टाइल" कहा है। किन्तु यह शैली सर्वत्र लागू नहीं होती है। आगम ग्रन्थों की कथाओं की विषय-वस्तु विविध है। अतः इन कथाओं का सम्बन्ध परवर्ती कथा-साहित्य से बहुत समय से जुड़ा रहा है। साथ ही देश की अन्य कथाओं से भी आगमों की कथाओं का सम्बन्ध कई कारणों से बना रहा है। डा. विन्टरनित्स ने कहा है कि "श्रमण साहित्य का विषय मात्र ब्राहमण, पुराण और चरित कथाओं से ही नहीं लिया गया है, अपितु लोक कथाओं एवं परी कथाओं आदि से भी गृहीत है।"4 प्रो. हर्टेल भी जैन कथाओं के वैविध्य से प्रभावित है। उनका कहना है कि "जैनों का बहुमूल्य कथा साहित्य पाया जाता है। इनके साहित्य में विभिन्न प्रकार की कथाएँ उपलब्ध हैं। जैसे- प्रेमाख्यान, उपन्यास, दृष्टान्त, उपदेशप्रद पशु कथाएँ आदि। कथाओं के माध्यम से इन्होंने अपने सिद्धान्तों को जन-साधारण तक पहुँचाया है। आगम ग्रन्थों की कथाओं की एक विशेषता यह भी है कि वे प्रायः यथार्थ से जुड़ी हुई हैं। उनमें अलौकिक तत्वों एवं भूतकाल की घटनाओं के कम उल्लेख हैं। कोई भी कथा वर्तमान के कथानायक के जीवन से प्रारम्भ होती है। फिर उसे बताया जाता है कि उसके वर्तमान जीवन का सम्बन्ध भूत एवं भविष्य से क्या हो सकता है। ऐसी स्थिति में श्रोता की कथा के पात्रों से आत्मीयता बनी रहती है। जबकि वैदिक कथाओं की अलौकिकता चमत्कृत तो करती है, किन्तु उससे निकटता का बोध नहीं होता है। बौद्ध कथाओं में भी वर्तमान की कथा का अभाव खटकता है। उनमें बोधिसत्व के माध्यम से बौद्ध सिद्धान्त अधिक हावी है। यद्यपि इन तीनों परम्पराओं में किसी प्राचीन सामान्य स्रोत से भी कथाएँ ग्रहण की गयी हैं, जिसे विन्तरनित्स ने "श्रमणकाव्य" कहा है। सांस्कृतिक मूल्यांकन : प्राकृत आगम ग्रन्थों मे प्राप्त कथाएँ केवल तत्व-दर्शन को समझने के लिए ही नहीं, अपितु तत्कालीन समाज और संस्कृति को जानने के लिए भी महत्वपूर्ण है। यद्यपि आगम ग्रन्थों का कोई एक रचनाकाल निश्चित नहीं है। महावीर के निर्वाण के बाद वलभी में सम्पन्न आगम-वाचना के समय तक इन आगमों का स्वरूप निश्चित हुआ है। अतः ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा की 5वीं शताब्दी तक लगभग एक हजार वर्षों का जन-जीवन इन आगमों में अंकित हुआ है। आगमों के व्याख्या साहित्य में विभिन्न सांस्कृतिक सन्दर्भो को और अधिक स्पष्ट किया गया है। आगम ग्रन्थों में प्राप्त समाज, संस्कृति एवं राजनीति आदि की सामग्री का महत्व इसलिए और अधिक है कि इसे युग के अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य कम उपलब्ध है। अतः इन्हीं साहित्यिक साक्ष्यों पर निर्भर होना पड़ता है। जैन-मुनियों द्वारा लिखे गये अथवा संकलित किये गये इन आगम ग्रन्थों में अतिशयोक्तियाँ होते हुए भी यथार्थ चित्रण अधिक है, जो सांस्कृति के मूल्यांकन के लिए आवश्यक होता है। इन आगमिक कथाओं में प्राप्त सांस्कृतिक सामग्री के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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