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पालि-प्राकृत कथाओं के अभिप्राय/93
दार्शनिक-अभिप्राय : पालि-प्राकृत कथाओं का सम्बन्ध चंकि किसी एक विशेष धर्म से है अतः स्वभावतः अनेक कथाएँ अपने मूल रूप का विसर्जन कर शुद्ध धार्मिक व दार्शनिक बन गई है। उनकी पुनरावृत्ति एकाधिक बार होने से उनके किसी एक मूल तत्व ने निश्चित अर्थबोधक अभिप्राय का स्प धारण कर लिया है। ऐसे अभिप्रायों का उद्देश्य मात्र उपदेश देना नहीं है, बल्कि उनके पीछे चिन्तन की एक निश्चित परम्परा है। प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का सामर्थ्य । यहाँ पालि-प्राकृत कथाओं के कुछ प्रमुख दार्शनिक अभिप्रायों का विवरण प्रस्तुत है। चूंकि दर्शन का सम्बन्ध शाश्वत सत्यों के उद्घाटन से है, अतः इसके अन्तर्गत वे सभी अभिप्राय आते हैं जिनमें चिन्तन की एक निश्चित परम्परा है। किन्तु यहाँ उन सबका विवेचन करना सम्भव नहीं है। अतः पालि-प्राकृत कथाओं के अध्यात्मचिन्तन अभिप्राय से सम्बन्धित अभिप्राय ही विवेच्य है।
पालि कथाओं में जातकों का प्रमुख स्थान है। जातकों का विषयवार वर्गीकरण न होने से धर्म व दर्शन सम्बन्धी कथाओं व उनके अभिप्रायों को खोजना बड़ा कठिन है। विन्तरनित्स के वर्गीकरण के अनुसार जिन जातकों को धार्मिक कहा गया है.13 उनके एवं अन्य पालि कथाओं के निम्न दार्शनिक अभिप्राय सामने उभरते हैं:___ 1. काया की तुच्छता 2. श्वेत बाल 3. कर्मों का फल 4. संसार सुख विषफल के समान 5. विष-वमन के समान 6. हिंसायज्ञ के स्थान पर ज्ञान यज्ञ 7. रूप-रस-गन्ध स्पर्श के आकर्षण का त्याग 8. मुर्दो से खाली जगह 9. मैत्री भावना का महत्व 10. पुत्र और दास का सबसे बड़ा बन्धन 11.दान देने का महत्व एवं फल 12. पुण्य सब सुखदाता 13. जागरुक होने का फल 14. इन्द्रियजित होना 15. क्रोध, द्वेष लोभ, मोह के दोष 16. चित्त-क्लेश (पाप) कभी छोटा नहीं होता 17. क्षणिक आयु 18. वीणा के तार 19. हिंसा का विरोध आदि।14
उक्त दार्शनिक अभिप्राय प्रायः अपने आप में स्पष्ट है। काया की तुच्छता और श्वेत वाल को वैराग्य का कारण बताया गया है। कर्मों का फल दशनि वाली अनेक कथाएँ हैं। शुभ कर्मों के शुभ फल के लिए विमान वत्थु की कथाएँ एवं अशुभ कर्मों के अशुभ फल के लिए पेतवत्थु की कथाएँ उदाहरण के लिए पर्याप्त है। मुर्दो से खाली जगह अभिप्राय द्वारा संसार की अनित्यता का दिग्दर्शन कराया गया है कि पृथ्वों में ऐसी जगह नहीं है जहाँ किसी न कसी को न जलाया गया हो। अतः सबकी मृत्यु अनिवार्य है। जो सत्य, धर्म, अहिंसा और संयम का पालन करता है, वही लोक में नहीं मरता। वीणा के तार का अभिप्राय पाली साहित्य में अनेक जगह मध्यममार्ग को प्रतिपादित करने के लिए प्रयुक्त हुआ है। सोनकोलिविस ने जब अत्यधिक कठोर तपस्दा प्रारम्भ कर दी तो उन्हें दुखी देखकर बुद्ध ने समझाया कि जैसे वीणा के तार अधिक कस देने
और अधिक ढीले कर देने से वीणा ठीक से नहीं बज पाती उसी प्रकार अत्यधिक उद्योग-परायणता औद्धत्य को उत्पन्न करती है, अत्यधिक शिथिलता शारीरिक आलस्य को उत्पन्न करती है। इसलिए सोण उद्योग करने में समता ग्रहण करे, इन्द्रियों के सम्बन्धों में समता ग्रहण करे।15 यही मध्यममार्ग है।
प्राकृत कथाओं के दार्शनिक अभिप्रायों की अपनी एक निजी विशेषता है। इनमें प्रतीकों का प्रयोग अधिक हुआ है। पालि जातकों की अपेक्षा इन कथाओं का सम्बन्ध वर्तमान जीवन से अधिक है। अतः कथा नायक को जिस किसी दार्शनिक सिद्धान्त से अवगत कराना अपेक्षित है
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