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पालि-प्राकृत कथाओं के अभिप्राय/97
रत्नदीप की यात्रा : 'रत्नदीप की यात्रा अभिप्राय अनेक प्राकृत कथाओं में प्रयुक्त हुआ है। इसके द्वारा कष्टों को सहन कर रत्न प्राप्त कर लाना बतलाया गया है। कोई एक दरिद्र वणिक रत्नदीप में पहुँचा। वहाँ उसने सुन्दर और मूल्यवान रत्न प्राप्त किये। मार्ग में चोरों का भय था, अतः वह दिखाने के लिए सामान्य पत्थरों को हाथ में लेकर और पागलों की तरह यह चिल्लाता हुआ कि रत्नबणिक जा रहा है, चला। चलते-चलते जब वह अरण्य में पहुंचा तो उसे प्यास लगी। उसे एक गंदा कीचड़ मिश्रित जलाशय मिला। यह जल अत्यन्त दुर्गन्धित और अपेय था। प्यास से बेचैन होने के कारण उसने आंखें बन्दकर बिना स्वाद लिये ही जीवन-धारण के निमित्त जल-ग्रहण किया। इस प्रकार अनेक कष्ट सहन कर वह रत्नों को ले आया।25
इस कथानक में रत्नत्रय-सम्यक् दर्शन, सम्य-ज्ञान और सम्यक् चारित्र-के प्रतीक हैं, चोर विषय-वासना के और बेस्वाद कीचड़-मिश्रित जल प्रासुक भोजन का। रत्नत्रय की प्राप्ति सावधानीपूर्वक विषय-वासना का त्याग करने से होती है। इन्द्रिय-निग्रही और संयमी व्यक्ति ही रत्नत्रय की रक्षा कर सकता है। रत्नदीप मनुष्यभव का प्रतीक है। जिस प्रकार रत्नों की प्राप्ति रत्नदीप में होती है, उसी प्रकार रत्नत्रय की प्राप्ति इस मनुष्य भव में।27
कड़वी तूम्बी का तीर्थ स्नान : इस अभिप्राय द्वारा बाह्यशुद्धि को गौण करके अन्तरंग शुद्धि पर बल दिया गया है। तीर्थ-स्थानों की नदियों में केवल स्नान कर लेने से आत्मा की कलुषता नहीं धुल जाती। ठीक वैसे ही जैसे कड़वी तूम्बी अनेक तीर्थजलों में नहा लेने के बाद भी मीठी नहीं हो पाती। उसका स्वभाव नहीं बदलता। पाण्डवों ने जब अपने बन्धु-बांधवों का वध करने के कारण तीर्थस्थानों की नदियों में नहाकर पवित्र होना चाहा तो श्रीकृष्ण ने कड़वी तूम्बी के उदाहरण द्वारा उन्हें प्रतिबोधित किया
है।28
प्राकृत कथाओं में तूम्बी के उदाहरण द्वारा आत्मा के गुरुत्व और लघुत्व को भी दर्शाया गया है। कर्मसिद्धान्त की विवेचना की गयी है। जैसे कोई तूम्बी मिट्टी के लेप आदि के कारण भारी होकर पानी में नीचे डूब जाती है और मिट्टी गलकर छूट जाने पर पानी के ऊपर स्वतः आ जाती है, वैसे ही आत्मा कर्मों से युक्त होने पर अपकर्ष एवं कर्मरहित होने पर उत्कर्ष प्राप्त करती है 129
एक का अपकर्ष, दुसरे का उत्कर्ष : यह अभिप्राय भारतीय कथा-साहित्य में अन्यन्त प्रचलित है। प्रायः प्रत्येक नैतिक या धार्मिक कथा में दो व्यक्तियों में से अशुभ कार्य करने वाले का अपकर्ष बताया गया है।30 पालि कथाओं में अनेक इसके उदाहदण हैं। प्राकृत कथाओं में यों तो नैतिक गुणों के अपकर्ष और उत्कर्ष के लिए कई बार यह अभिप्राय प्रयुक्त हुआ है, किंतु दार्शनिक विवेचन की दृष्टि से इस अभिप्राय का प्रयोग इन कथानकों में हुआ है:- विद्युत्माली और मेघमाली32 जिनपाल और जिनरक्षित,33 जिनदत्त और सागरदत्त,34 दो कछुए35 एवं स्थूलभद्र और सिंहगुफा प्रवासी मुनि,36 आदि। विद्युत्माली विद्याधर द्वारा प्रदत्त मन्त्र-साधना में दृढ़ न रहने से दुःखी हुआ, मेघमाली दृढ़
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