Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 114
________________ 04/प्राकृत कथा-साहितय परिशीलन मूर्तिपूजक, विनयवादी, पुरोहित, ईश्वरवादी तथा तीर्थ-वन्दना के समर्थक ये सात आचार्य पौराणिक धर्म का प्रचार करने वाले थे। इनके अतिरिक्त बौद्ध, चार्वाक, सांख्य, योग-दर्शन के आचाये थे। कुछ स्वतन्त्र विचारक थे। यथा- आजीवक सम्प्रदाय के पंडरभिक्षुक एवं नियतवादी, भागवत-सम्प्रदाय के चित्रशिखण्डी, अज्ञानवादी, एवं मूढपरम्परावादी। इन सभी आचार्यों के मतों की तुलनात्मक समीक्षा यहाँ अपेक्षित नहीं है। किन्तु यह विचारणीय है कि कुव. का यह धर्म-परीक्षा का विवरण लोक-मानस की किस मूल भावना का विकास है तथा इसने उत्तरवर्ती धर्म-परीक्षा सम्बन्धी साहित्य को कितना प्रभावित किया है ? धर्म-परीक्षा का यह प्रसंग इतने विस्तृत स्प में प्रस्तुत करने वाले उद्योतनसूरि पहले आचार्य हैं। उनके पूर्व तथा बाद में भी इतने धार्मिक मतों का एक साथ मूल्यांकन किसी एक ग्रन्य में नहीं किया गया है। यद्यपि इस तुलनात्मक दृष्टिकोण को लेकर कई कथाएं भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं। एक की तुलना में दूसरे को श्रेष्ठ बताना, यह धर्मपरीक्षा की मूल भावना है, जिसका अस्तित्व शास्त्रीय और लोक-साहित्य दोनो में प्राचीन युग से पाया जाता है। वैदिक युग के साहित्य में कथाओं के स्थान पर देवताओं का वर्णन अधिक उपलब्ध है। उसमें हम पाते हैं कि कभी इन्द्र श्रेष्ठ होता है तो कभी विष्णु। कभी वरुण को प्रधानता मिलती है तो कभी रुद्र को। यह इसलिए हुआ है कि जब इन देवताओं की विशेषताओं को तुलना की दृष्टि से देखा गया तो तत्कालीन मानव को जिसके गुण अधिक उपयोगी लगे उसे प्रधानता दे दी गयी। यह एक प्रकार की धर्मपरीक्षा के स्थान पर गुण- परीक्षा थी, जिसने आगे चलकर भारतीय साहित्य में अपने रूप का विकास किया है। जातक साहित्य में भी परीक्षा सम्बन्धी अनेक कथाएं हैं। कहीं सत् की परीक्षा की जाती है तो कहीं शुद्धता की, कहीं ईमानदारी की, तो कहीं गुणों की। गुणों की परीक्षा ही वास्तव में धर्म-परीक्षा का आधार है। राजोवाद जातक गुण-परीक्षा का श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसमें दो राजाओं के गुणों की परीक्षा उनके सारथी करते हैं। दोनों राजा बल, आयु, सौन्दर्य एवं वैभव में समान है, किन्तु उनके चिन्तन में थोड़ा-सा अन्तर है। एक राजा शठता को शठता से जीतता है। जैसे के साथ तैसा व्यवहार। जबकि दूसरा राजा बुराई को भलाई से जीतता है। यह कथा धर्म-परीक्षा के ठीक अनुरुप बैठती है। दो आचार्य धर्म की श्रेष्ठता की परीक्षा करते हैं। जिस धर्म में साध्य (मोक्ष) की भांति उसके साधन (सदाचार) भी श्रेष्ठ है, वही धर्म उत्तम कहा जाता है। यही प्रयत्न प्राकृत-साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में हुआ है। श्रेष्ठता की पहिचान करने वाली अनेक कथाएँ प्राकृत-साहित्य में हैं।' प्रवृत्ति से निवृत्ति मार्ग की भाग्य से पुरुषार्थ की तथा लक्ष्मी से सरस्वती की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने वाली कथाओं की भारतीय साहित्य में कमी नहीं है। अकेले जम्बु स्वामी का चरित्र असत् से सत् की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। ज्ञाताधर्मकया में पांच धान्यकणों की कथा केवल चार बहुओं मो चौथी बहु की श्रेष्टता को ही प्रमाणित नहीं करती, अपितु प्रतीकों के अनुसार अन्य व्रतों में अहिंसा की श्रेष्टता स्थापित करती है। कथाओं का नायक गुणों की खान एवं खलनायक दोषों का पुंज, यह मिथक इसी गुण-परीक्षा अथवा धर्म-परीक्षा के कारण ही विकसित हुआ है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है समराइच्चकहा का सम्पूर्ण कथानक । गुणशर्मा और अग्रिशर्मा के नौ जन्मों की कथा। राम और रावण, बोधिसत्व और मार, जिनेन्द्र और मदन आदि पात्रों की यह योजना एक की अपेक्षा से दूसरे को श्रेष्ठ प्रमाणित करने की मूल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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