Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 110
________________ 100/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन सार्थवाह अपने काफिले के साथ व्यापार के लिए निकला। रास्ते में भयंकर अटवी में प्रवेश करते ही उसने अपने साथियों को सुन्दर किन्तु विषयुक्त नन्दी फल खाने के लिए मना कर दिया। जिन लोगों ने सार्थवाह की इस सूचना को बकवास समझा उन्होंने विषाक्त नन्दी फल खा लिये। न खाने वाले व्यापार कर धन-सम्पत्ति के साथ वापिस घर आ गये। खाने वालों की जीवन-लीला वहीं समाप्त हो गयी। फल जातक में भी यही अभिप्राय प्रयुक्त है, किन्तु उसमें विषाक्त फल खाने वालों को वमन करा दिया गया है, जो विषयी पुरुषों को धर्माचार्य द्वारा साधना मार्ग में लगा देने का प्रतीक है। परीषह सहन : साधक के जीवन में उपसर्गों का आना उनको शान्त भाव से सहन करना यह अभिप्राय धार्मिक साहित्य में सामान्य रूप से प्रयुक्त हुआ है। पालि-प्राकृत कथाओं में अनेक तपस्वियों की कथाओं में यह बात देखने मिलती हैं। पालि-साहित्य में मार और भगवान बुद्ध के तो अनेक प्रसंग भरे पड़े हैं, जिनमें मार को पराजित होना पड़ा है। जैन धर्म में साधक के जीवन में बाइस परीषहों को सहन करना आवश्यक बताया है। अत: प्राकृत कथाओं में ऐसे सहनशील अडिग साधकों के अनेक कथानक अपलब्ध होते हैं। उत्तराध्ययनटीका में सभी परीषहों को सहन करने वालों की स्वतन्त्र कथाएं हैं। आत्मा से सम्बद्ध अभिप्राय : पालि कथाओं के जहाँ अनात्मवाद के प्रतिपादन के लिए कुछ प्रचलित अभिप्रायों का सहारा लिया गया है वहाँ प्राकृत कथाओं में आत्मवाद के स्थापन के लिए। लकड़- हारों के कथानक में लकड़ी में आग के उदाहरण द्वारा शरीर-प्रमाण आत्मा का, धन्ना सार्थवाह और विजय चोर के कथानक द्वारा शरीर और आत्मा की भिन्नता का तथा तूम्बी और मिट्टी के लेप आदि के द्वारा आत्मा और कर्मबन्धन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। इन अभिप्रायों का बाद में भी कई कथाओं में प्रयोग हुआ है। उक्त प्रमुख अध्यात्म-चिन्तन प्रधान अभिप्रायों के अतिरिक्त पालि-प्राकृत कथाओं में अन्य ऐसे फुटकर अभिप्रायों का प्रयोग भी हुआ है जो प्रकारान्तर से किसी न किसी दार्शनिक पक्ष को उद्घाटित करते हैं। उपर्युक्त अभिप्रायों के इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि यदि पालि-प्राकृत कथाओं के सभी अभिप्रायों का तुलनात्मक एवं वैज्ञानिक अध्ययन किया जाय तो भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्ष उजागर तो होंगे ही, भारतीय कथाओं का मूल्यांकन भी उनकी समृद्धता की समकक्षता पर हो सकेगा। और यह अनुसन्धान के क्षेत्र में एक ऐसो कार्य होगा, जिसकी अनिवार्यता कथा-साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के लिए अक्षुण्ण होगी। सन्दर्भ 1. 'आजकल' मई 1954, डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, पृ. 101 2. पृथ्वीराजरासो में कथानक रुढ़ियां - डॉ. ब्रजविलास श्रीवास्तव पृ. 541 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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