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94 / प्राकृत कथा - साहित्य परिशीलन
उसे पूर्णरूप से घटित कर दिखाया है। दूसरी बात, प्राकृत कथाएँ किसी एक ही व्यक्ति द्वारा कथित व लिखित न होने के कारण विभिन्न कल्पनाओं व दृष्टान्तों से संलिष्ट हैं। इसलिए इनके दार्शनिक अभिप्राय गूढ़ से गूढ़ सिद्धान्त को भी जीवन में उतारने में सक्षम हैं। उनकी एक सुदीर्घ परम्परा है। प्राकृत कथाओं में निम्न प्रमुख दार्शनिक अभिप्राय प्रयुक्त हुए हैं:
1. समुद्र यात्रा और जलयान का भंग होना । 3. मधुविन्दु
5. रत्न द्वीप की यात्रा
7. एक का अपकर्ष, दूसरे का उत्कर्ष
9. वैराग्य प्राप्ति के निमित्तों की योजना
11. मनुष्य जीवन की सार्थकता 13. विषयभोग और वमन या विषफल 15. आत्मा से सम्बद्ध
2. पुण्डरीक
4. सर्षप दाना
6. कड़वी तुम्बी का तीर्थ स्थान
8. सत्य परीक्षा
10. व्रतों का पालन
12. पूर्वभव
14. परीषह सहन
16. अन्य दार्शनिक अभिप्राय
समुद्रयात्रा
और जलयान का भग्न होना :
समुद्रयात्रा का अभिप्राय भारती कथा - साहित्य में बहुत लोकप्रिय रहा है। जब कभी धनोपार्जन या नायक के पराक्रम को दर्शाने की आवश्यकता हुई तभी समुद्रयात्रा को कथाओं में प्रवेश मिल गया । प्राकृत कथाओं में समुद्रयात्रा के साथ जलयान भग्न को भी जोड़ दिया गया है। इससे इस अभिप्राय को दुहरी सार्थकता प्राप्त हो गयी। धनोपार्जन या पराक्रम का द्योतक होते हुए यह एक शाश्वत सत्य का प्रतिपादक भी हो गया। कुवलयमालाकहा में इस अभिप्राय को उदाहरण देकर स्पष्ट किया है।
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पाटलिपुत्र का धन नामक वणिक् जलयान के द्वरा रत्नद्वीप के लिए रवाना हुआ। बीच समुद्र में आंधी आ जाने से उसका जहाज टूट गया। धनदेव एक फलक के सहारे कुडंगद्वीप मे जाकर किनारे लगा । वह द्वीप नाना दुःखों से परिपूर्ण था। धनदेव को वहां दो वणिक् और मिले जो उसी की तरह सुवर्ण द्वीप और लंकापुरी को जाते हुए जहाज टूट जाने से वहां आ टिके थे । तीनों समान दुखी होने से मित्र हो गये। उन्होंने अपने-अपने चिन्ह-विशेष पेड़ के ऊपर बांध दिये ताकि कोई जहाज यदि वहां से गुजरे तो उन्हें देख कर अपने साथ ले ले।
उन वणिकों ने उस द्वीप में एकाएक कादम्बरी के वृक्ष देखे । वे फूले न समाये । किन्तु उनमें एक भी फल नहीं था। कुछ दिनों बाद उनमें फल लगे। वे उन्हीं की रक्षा करते हुए अपने दिन व्यतील करने लगे। तभी एक दिन एक जहाज वहां से गुजरा। सार्थवाह ने पेड़ पर टंगे चिन्हों को देख कर नौका द्वारा दो निर्यामकों को तीर पर भेजा। उन निर्यामकों ने धनदेव आदि वणिकों से कहा- हमें सार्थवाह ने भेजा है। आप लोग हमारे साथ जहाज में चलें। इस अपार दुखपूर्ण द्वीप को छोड़ दें। इनमें से एक वणिक ने कहा- 'इस द्वीप में क्या दुख है ? यह तो अब घर जैसा हो गया है । कादम्बरी वृक्षों में फल आ गये हैं। उन्हीं को खाते-पीते मैं तो अब यहीं रहूँगा ।' दूसरे वणिक् ने भी यही कहा और दोनों वहीं रह गये। किन्तु धनदेव ने निर्यामकों से कहा- 'आप लोगों का स्वागत है। आप आ गये यह बहुत अच्छा हुआ। यहाँ के ये सुख तो तुच्छ और अनित्य हैं। दुख ही यहाँ ज्यादा हैं। अतः मैं तो आपके साथ चलूँगा ।' धनदेव निर्यामकों के साथ नाव में
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