Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 89
________________ कथा मिणाहचरिउ की / 79 तेण वि कयउ गंथ अकसायहु, वंधव अम्मएव सुसहावइ । कम्मक्खय- णिमित्तु आहासिउ, अमुणतेण पमाणु पयासिउ । जइ हीणाहिउ किउ वाएसरि णाणदेवि तं रवमि परमेसरि । लक्खण छंदहीणु जं भासिउ, तं बुहयण सोहेवि पयासिउ । आरंभिउ आसाढ़ सिय तेरसि, भउ परिपुण्णु धइतहि तेरसि । जो पढइ सुणइ जो लिहइ लिहावइ मणवंहिउ सोक्खु सो पावइ । छत्ता छूटा है। इय मिणाह चरिए अबुहकय - रयण-सुअ लखमएतेण विरइए भव्वयण - जण - मणाणदे मि - मिणिहायागमेणो णाम चउत्यो परिच्छेओ समत्तोः संधि 4 12 यह णेमिणाहचरिउ कुल चार संधियों (परिच्छेदों) का ग्रन्थ है, जिनमें कुल 82 कड़वक हैं। प्रथम संधि के 19 कड़वकों में तीर्थंकर वन्दना, सरस्वती वन्दना, मालवदेश एवं कवि परिचय, श्रेणिक की प्रार्थना पर गणधर द्वारा नेमिनाथ के चरित का वर्णन, नेमिकुमार का जन्म एवं इन्द्रादि द्वारा जन्माभिषेक का वर्णन है। इस संधि में दुर्जन एवं सज्जन-वर्णन के प्रसंग में कवि कहता है कि मैं अधिक वर्णन क्या करूँ क्योंकि दुर्जनों के स्वभाव से डरता हूँ। ईर्ष्या करना उनका स्वभाव है । जैसे, उल्लू सूर्य के प्रताप को सहन नहीं करता उसी प्रकार दुर्जन लोगों को अनुराग नहीं करता। उनके इस स्वभाव को जानना चाहिए कि वे दूसरों के गुण को छोड़कर उनके दोषों को ही ग्रहण करते हैं जिह कोसिउ ण सहइ रविपयाउ, तिह खलु ण करेइ जणाणुराउ ।. जाणेव्व इय दुज्जणु - सहाउ, गुण मेल्लेवि दोसु गहेइ पाउ ।। - संधि 1, कड़वक 3 ग्रन्थ की दूसरी संधि में णेमिकुमार की बाललीला, शिक्षा ग्रहण, युवावस्था, वसन्तवर्णन, जलक्रीडा, विवाह - निश्चय, राजमती का सौन्दर्य वर्णन, बारात प्रस्थान, पशु-वन्धन से वैराग्य धारण एवं राजमति और नेमिनाथ के बीच प्रश्नोत्तर आदि का वर्णन 23 कड़वकों में किया गया है। नेमिनाथ जब पशुओं के वध की बात को सुनकर वैराग्य धारण कर तपश्चर्या के लिए चले गये तब उनके विरह में दुःखी होकर राजमती सोचने लगी कि क्या मैंने पूर्वजन्म में फलों से युक्त वृक्ष को तोड़ दिया था जिसके कारण से भाग्य मुझे यह दुःख दे रहा है ? क्या पूर्व जन्म में मैंने दूसरे के द्रव्य का हरण किया था जो मेरे इस प्रतियतम रूपी द्रव्य को मुझ से छीन लिया गयाकि परभवि भग्गड सहल रुक्खु, तं आयण्णिवि दिण्णउ देव दुक्खु ।. कि परभवि हरयउ परहे दव्बु तं दइयद- दुहु दावियउं सव्वु । । संधि 2, कड़वक 17 तीसरी संधि के कड़वक 1 से 10 तक में राजमती की सहेली मदनसिरी राजमती की ओट में नेमिकुमार से बातचीत करती है एवं तप को निरर्थक सिद्ध करने के लिए कई उक्तियां देती है। इन सबका जवाब नेमिकुमार देते हैं और इंद्रियसुख की असारता को सिद्ध करते हैं । मदनश्री कहती है कि हे कुमार आपको सब सुख प्राप्त हैं तो आप उन्हें छोड़कर तप को जा रहे हैं जबकि संसार के लोग इन्हीं सुखों की प्राप्ति के लिए जीवन भर प्रयत्न करते रहते हैं: यह संसार भी विचित्र है। जिस मनुष्य के घर में अन्न भरा है, उसे भोजन के प्रति अरुचि है और जिसको भोजन के प्रति आसक्ति है, उसके पास अनाज नहीं है। जिस व्यक्ति में दान का For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International

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