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54/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन
14. हास्य-विनोद में तिरस्कार,
32. गुणसेन एवं अग्निशर्मा 15. तृष्णाकुल व्यक्ति दुःखदायी,
33. कपिल का लोभ 16. भाव सम्याक्त्व की महिमा,
34. उदयसेन राजा के पुत्र 17. हिंसा सम्बन्धी मतवाद
35. रोहगुप्त मन्त्री द्वारा धर्म-परीक्षा 18. साधक के उत्थान-पतन का क्रम 36. नंदिपेण एवं, 37. उदायी नृप 19. कामभोगों से कलह और आसक्ति, 38. वणिक् इन्द्रदत्त, 39. ललितांगक 20. विनय एवं अनुशासन,
40. जितशत्रु राजा के दो पुत्र 21. उपसर्गों के कारण,
41. देवसेना गणिका (हास्य), 42. सोमभूति एवं गजसुकुमाल, 43. चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य,
44. संयमी साधु की दृढ़ता 22. अहिंसक धर्मोपदेश,
45. असंदीन द्वीप रूपक 23. समाधि-मरण के भेद,
46. आर्य वैर स्वामी, 47. आर्य समुद्र, 48. तोसलि आचार्य एवं,
49. साधु एवं राजा की कथा 24. परीषह-सहन,
50. अवन्ति सुकुमाल एवं 25. अन्य रूपक,
51. निर्लोभी ब्रह्मदत्त, 52. शुचिवादी तथा,
53. कछुआ एवं बादल। आचारांग के व्याख्या साहित्य की इन कथाओं का भाषा एवं कथा-तत्त्वों की दृष्टि से मूल्यांकन करने पर कई नये तथ्य प्राप्त हो सकते हैं। दार्शनिक शब्दों की व्याख्या में इन कथाओं का जितना महत्त्व है, उतना ही इनमें निहित सांस्कृतिक सामग्री की दृष्टि से भी। जैन आगमों के अन्य व्याख्या साहित्य एवं स्वतंत्र कथा-ग्रन्थों की कथाओं के साथ भी इन कथाओं का तुलनात्सक अध्ययन किया जा सकता है। मध्ययुगीन भारतीय समाज का प्रतिबिम्ब इनमें देखा जा सकता है।
संदर्भ
1. आगमोदय समिति, सूरत, वि. सं. 1972-73 में नियुक्ति एवं टीका सहित प्रकाशित आचारांग। 2. देवेन्द्र मुनि,जैन आगम साहित्य-मनन और मीमांसा, पृ.490 3. प्रभावकचरित्र, श्री अभयदेवसूरि प्रबन्ध, पृ. 104-5 4. आचारांगदीपिका-प्रथम श्रुतस्कन्ध, मणिविजयगणिवर ग्रन्थमाला लीच, वि. सं. 2005 5. राजबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, सं. 1936 में टीकाओं सहित प्रकाशित आचारांग। 6. आ. शी. टीका, पृ. 41-42 7. आवश्यकचूर्णि, 1, पृ. 498, ओघनियुक्ति, 450 गा. 8. आ. शी. टीका, पृ. 41-42,धर्मकथानुयोग, स्कंध 2, पृ. 23
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