Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 84
________________ 74/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन आरामशोभा की जो कथा दी गयी है उसका प्रारम्भ इस प्रकार होता है इहेव जम्बूस्क्खालंकियदीवमज्झट्ठिए अक्खंडछक्खंडमंडिए बहुविहसुहनिवहनिवासे भारहे वासे असेसलच्छि-संनिवेसो अत्थि-कुसट्टदेसो। इस पूरी रचना में 30 प्राकृत एवं संस्कृत के पद्यों का भी प्रयोग हुआ है। अन्त में कहा गया आरामसोहाइ चरित्तमेयं निसामिऊणं सवणाभियामं। कुणेह देवाण गुरुणवेया-वच्चं सया जेण लहेइ सुक्खं ।। इस कथा को मूल स्प में डा. राजाराम जैन ने हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया, है यद्यपि विभिन्न प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया जाना शेष है। ला.द. संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद, में इस प्राकृत (गद्य) आरामसोहाकथा की 2 प्रतियाँ प्राप्त हैं - संख्या 3260 एवं 2560। संस्कृत संस्करण : (4) संस्कृत में जिनहर्षसूरि (ई. सन् 1481), मलयहसगणि एवं माणिक्यसुन्दरगणि ने आरामशोभाकथा लिखी है। यह ज्ञात नहीं हो सका है कि इसका संस्कृत संस्करण प्रकाशित है या नहीं। इनकी पाण्डुलिपियाँ विभिन्न ग्रन्थ-भंडारों में प्राप्त हैं। संस्कृत के जैन कथा-ग्रन्थों में आरामशोभाकथा का उल्लेख किया गया है।' गुजराती संस्करण : (5) आरामशोभाकथा गुजराती में भी लिखी गयी है। गुजराती के आरामशोभारास की भूमिका में सम्पादकों ने इस कथा की निम्नांकित गुजराती रजनाओं का उल्लेख किया है:-8 (क) आरामशोभारास (राजकीर्ति), ई. सन् 1479 (ख) आरामशोभा चौपाई (विनय समुद्र), ई. सन् 1527 (ग) आरामशोभाचरित (पुंज ऋषि), ई. सं. 1596 (घ) आरामशोभा चौपाई (समयप्रमोद), ई. सं. 1610 के लगभग (ड) आरामशोभा चौपाई (राजसिंह), ई. सं. 1631 (च) आरामशोभा चौपाई ( दयासार), ई. सं. 1648 (छ) आरामशोभारास (जिनहर्ष), ई. सं. 1660 इस तरह ज्ञात होता है कि आरामशोभाकथा जन-जीवन में बहुत लोकप्रिय रही है। जिनभक्ति के लिये मध्यकाल में यह प्रमुख दृष्टांत रहा है। कथा की लौकिकता के कारण इसे अधिक प्रसिद्धि मिली है। हिन्दी संस्करण : (6) आरामशोभाकथा को किसी हिन्दी लेखक ने स्वतन्त्र से नहीं लिखा है। किन्तु प्राचीन कथा के आधार पर हिन्दी में उसका संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया है। श्री देवन्द्रमुनि शास्त्री द्वारा सम्पादित जैन कथा भाग 66 में आरामशोभाकथा प्रस्तुत की गयी है। अमरचित्र कथा सीरिज में भी 'जादुई कुंज के नाम से इस कथा को प्रस्तुत किया गया है।10 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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