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कथाओं में अहिंसा दृष्टि / 67
मिलनेवाले फल की सही तस्वीर खींची है। विपाकसूत्र की कथाएँ बताती हैं कि अण्डे के व्यापारी निम्नक, प्राणीक्ध करनेवाले छणिक कसाई एवं सूरदत्त मच्छीमार को अपने हिंसक कार्यो के कारण कितनी यातनाएँ सहनी पड़ी है। 21 बृहत्कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों में हत्या करनेवाले के लिए अनेक प्रकार की सजाएँ दिये जाने का उल्लेख है। कर्म-परिणाम एवं सजा की कठोरता ने भी हिंसक - भावना को क्रमशः कम करने में मदद की है। एक हिंसा दूसरी हिंसा को जन्म देती है। अतः इससे वैर की लम्बी परम्परा विकसित हो जाती है। इस बात को कई प्राकृत-कथाओं में उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। 22
अभय से हृदय परिवर्तन :
प्राकृत की कुछ कथाएँ अहिंसा के अभय तत्त्व को उजागर करती है। कितना ही भयंकर एवं क्रोधी हत्यारा क्यों न हो, उसकी यह स्थिति अधिक समय तक नहीं टिक सकती। उसके हृदय में भी किसी घटना विशेष के द्वारा परिवर्तन लाया जा सकता है। मोग्गरपाणि यक्ष से प्रभावित अर्जुन की कथा बहुत प्रसिद्ध है। वह अपनी पत्नी के अपमान का बदला लेने के लिए प्रतिदिन वह पुरुष और एक स्त्री की हत्या करता था। उसके इस उत्पात के कारण लोगों का जीना मुश्किल हो गया था । किन्तु अहिंसा और अभय के पुजारी सुदर्शन श्रावक ने अर्जुन मालाकार के हृदय को भी पदिवर्तित कर उसे साधक बना दिया। हत्यारा अर्जुन क्षमा की मूर्ति बन गया | 23 इसी तरह दृढ़प्रहारी की कथा भी बड़ी मार्मिक है। उसने क्रोध के कारण एक पति-पत्नी और उनकी गाय को तलवार के एक ही बार से समाप्त कर दिया। किन्तु गर्भवती गाय के तड़पते हुए बछड़े को देखकर दृढ़प्रहारी कांप उठा । 24 हिंसा के चरम उत्कर्ष ने उसे अहिंसक बना दिया । इस दर्दनाक हिंसा का प्रायश्चित करने के लिए वह साधु बन गया।
अहिंसा का अर्थ केवल हिंसा से बचना ही नहीं है, अपितु अहिंसा के अतिचारों से भी दूर रहना है। प्राकृत कथाओं में यह स्पष्ट उल्लेख है कि वध, वन्धन छेदन, अतिभारारोपण एवं दूसरे प्राणी के खान-पान के निरोध की क्रियाएँ भी हिंसा है। इनसे बचकर ही अहिंसा का पालन हो सकता है। कहारयणकोस में इनकी सुन्दर कथाएँ दी हैं। 25 प्राणी - वध तो दुःख देनेवाला है ही, किन्तु यदि किसी को कष्ट पहुँचाने एवं किसी के वध करने की बात मन में भी उबुद्ध हो जाय अथवा किन्हीं प्रतीकों के द्वारा वध की क्रिया पूरी कर ली जाय, तो भी अनेक जन्मों तक उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। 26 कालक कसाई 500 भैंसों का प्रति दिन वध करता था, इस क्रिया को रोकने के लिए उसे बन्दी बनाकर रखा गया, किन्तु वहाँ पर भी उसने अपने शरीर के मैल के 500 भैसे बनाकर उनकी हत्या करने का संकल्प पूरा किया और उसके कारण उसे नरकों की यातना सहनी पड़ी। 27
रक्षात्मक हिंसा का दायरा :
प्राकृत-कथाओं में अहिंसा के उस दूसरे पक्ष को भी छुआ गया है, जहाँ कई कारणों से आत्म-रक्षा के रूप में विरोधी हिंसा करना आवश्यक हो जाता है। भाष्य-कथा-साहित्य में ज्ञात होता है कि संघ की रक्षा के लिए संघ में धनुर्धर साधु भी होते थे। 28 कोंकणक साधु ने जंगल में संघ की रक्षा करते हुए एक रात में तीन शेर मार दिए थे। 29 आचार्य कालक की कथा
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