________________
68/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन
प्रसिद्ध है ही कि उन्होंने साध्वी के सतीत्व की रक्षा के लिए एक राजा के राज्य पर दूसरे राजा से चढ़ाई करवा दी थी।30 पार्श्वनाथ ने भी यवनराज से प्रभावती की रक्षा के लिए युद्ध को स्वीकार किया था। गृहस्थ श्रावक के जीवन में इस प्रकार की आरंभी एवं विरोधी हिंसा होती ही है।
प्राकृत-कथाओं के उपर्युक्त कुछ प्रसंगों से स्पष्ट है कि अहिंसा किसी जाति या वर्ग विशेष की बपौती नहीं है। जीवन के किसी भी स्तर और कोटि का व्यक्ति अहिंसा में विश्वास रख सकता है। यथा-शक्ति वह उसे अपने जीवन में उतार सकता है। पशु-जगत् भी अहिंसा, अनुकम्पा, पर-पीड़ा आदि का अनुभव करता है। अतः उसका जीवन रक्षणीय है। ये कथाएँ यह भी उजागर करती हैं कि हिंसा की परिणति दुःखदायी ही होती है, चाहे वह किसी भी स्तर या उद्देश्य से की जाय। किन्तु हिंसक कायों में लिप्त व्यक्ति इतना दयनीय भी नहीं है कि उसे सुधरने का अवसर ही न मिले। वह किसी भी क्षण अपनी हिंसा की उर्जा को अहिंसा की ओर मोड़ सकता है। निर्भयता और प्रेम से उसे कोई प्रेरित करनेवाला मिलना चाहिए। कथाओं का केन्द्र-बिन्दु यह जान पड़ता है कि आत्मा के स्वरूप के प्रति उदासीनता एवं अज्ञान ही हिंसक भावनाओं को जन्म देता है तथा वही परपीड़ा का कारण है। अतः अहिंसा के परिपालन के लिए अपरिग्रही, संयमी, अप्रमादी होना आवश्यक है। अनेकान्त एवं स्याद्वाद को जीवन में उतारने से बौद्धिक अहिंसा का भी पालन किया जा सकता है तथा आत्मिक अहिंसा की पूर्ण उपलब्धि तो वीतरागता की ओर बढ़ने से ही होगी।
संदर्भ
1. अहिंसा का तत्त्वदर्शन (मुनि नथमल), ऋषभदेवः एक परिशीलन, (देवेन्द्रमुनि)। 2. उत्तराध्ययनसूत्र, अ.22, ग. 14-20 3. कर्मयोगी कृष्णः एक अनुशीलनः देवेन्द्रमुनि । 4. सिरिपासनाहचरियं, 14-30 5. महावीरचरियं-नेमिचन्द्रसूरि 8, 22 6. भगवान् महावीरः एक अनुशीलन (देवेन्द्रमुनि)। 7. सूत्रकृतांगसूत्र 2, 6, 9, 2, 8. विपाकसूत्र, पृ. 22 9. जैन-आगम-साहित्य में: भारतीय समाज-डॉ.जगदीशचन्द्र पृ. 56-84 10. आदिपुराण-आचार्य जिनसेन, ऋषभदेव कथा। 11. णायाधम्मकहा, अध्ययन 1 12. वही, अ. 16 13. सूत्रकृतांग 2, 6, 27-42 14. प्राकृत का जैन- कथा साहित्यः डॉ. जगदीशचन्द्र जैन। 15. जैन कहानियां, भाग 2, मुनि महोन्द्रकुमार 'प्रथम' 16. कल्पसुखबोधिका टीका, अघि. 8 जैन-कथामाला (भाग 15) मुनि मधुकर 17. जैन कहानियाँ, भाग 21 18. उपासगदसाओ, अध्ययन 8
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org