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आचारांग व्याख्याओं की कथाएँ/43
भी जानी जाती है। इस टीका को उद्धरण गाथाओं, पद्यों एवं कथानकों द्वारा सुबाध बनाया गया है। यह टीका कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।
वि.सं. 1629 के लगभग अजितदेवसूरि ने शीलांक की आचारांगटीका के आधार पर आचारांगदीपिका लिखी है। इसको सरल और सुबोध बनाने का प्रयत्न किया गया है।' शीलांकटीका के लिए यह कुंजी है। इसके पूर्व वि. सं. 1528 में जिनहंस ने आचारांगटीका लिखी है। इसका आधार शीलांकटीका ही है। इसी का अनुकरण पार्श्वचन्द्र की आचारांगटीका
आचारांग के व्याख्या साहित्य में विभिन्न प्रसंगों में विषय को पूर्णतया स्पष्ट करने के लिए जैन संघ की परम्परा में प्रचलित कथाओं के उदाहरण दिये गये हैं। आचारांग मूल में कुछ रुपकों के मात्र नाम निर्दिष्ट हैं। नियुक्तिकार ने उन कथाओं को विस्तार दिया है। किन्तु कथाओं को स्पष्ट स्वस्प चूर्णिकार ने प्रदान किया है। उन्होंने कई लोककथाओं को भी इसमें सम्मिलित किया है। टीकाकार शीलांक ने चूर्णि में वर्णित कथा को टीका में उद्धृत नहीं किया, केवल उसका संकेत कर दिया है। किन्तु कथाओं को संक्षिप्त शैली में प्रस्तुत किया है। आचारांग के व्याख्या साहित्य की अधिकांश कथाएं आवश्यकचूर्णि में उपलब्ध है। अतः आवश्यकचूर्णि और आचारांग- चूर्णि का तुलनात्मक अध्ययन बहुत उपयोगी हो सकता है। आचारांग की कथाओं के विश्लेषण के पूर्व उन समस्त कथाओं को आचारांग के विषयक्रम के अनुसार यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
जाति-स्मरण के तीन दृष्टान्त : 1. (क) स्व-मति से जाति-स्मरण :- वसन्तपुर नगर में जितशत्रु राजा है, उसकी रानी धारिनी है। उनके धर्मरुचि नामक पुत्र है। वह राजा जितशत्रु मुनि बनने की इच्छा से धर्मरचि को राज्य पर बैठाकर जाने लगा। तब पुत्र ने मां से पूछा कि पिताजी किसलिए राज्य लदमी को त्याग रहे हैं। तब उसे पिता द्वारा कहा गया कि इस चंचल और दुःखभूत लक्ष्मी से क्या लाभ ? इसे छोड़कर मैं धर्म करना चाहता हूँ।
तब पुत्र ने कहा- 'यदि ऐसा है, तब हे पिता ! आप मुझे क्यों इस पाप में डालते हैं। मैं भी धर्म अंगीकार करूँगा।' तब वे दोनों पिता-पुत्र एक तपस्वी के आश्रम में चले गये। वहाँ पर सभी धार्मिक क्रियाएं करने लगे।
वहाँ पर अमावस्या के एक दिन पूर्व किसी ताफ्स ने सूचना दी कि कल "अनाकुट्टि" होगी। अतः आज ही पुष्प, फल, कुश आदि सब ले आओ। धर्मरुचि के पिता ने समझाया कि अमावस्या आदि पर्व के दिनों में लता, पुष्प आदि को जीव हिंसा होने से काटते नहीं है, यही "अनाकुट्टि' है। धर्मरुचि ने सोचा- ऐसी अनाकुट्टि हमेशा हो तो अच्छा है।
दूसरे दिन अमावस्या को रास्ते में उसे कुछ साधु जाते हुए दिखे। धर्मरुचि ने उनसे पूछाक्या आज आप लोगों की 'अनाकुट्टि नहीं है। अन्होंने कहा कि हमारी तो जीवनपर्यन्त के लिए 'अनाकुट्टी है। उनके इस कथन से धर्मरुचि को अपनी गति से ही जाति-स्मरण हो गया कि वह पहले मुनि था। फिर स्वर्ग जाकर यहाँ जन्मा है। प्रत्येकबुद्ध हुआ। इसी प्रकार वल्कलचीरि, श्रेयांस आदि के सम्बन्ध में जानना चाहिए। यह कथा जैन साहित्य में प्रसिद्ध है।
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