Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 61
________________ आचारांग व्याख्याओं की कथाएँ/51 उपसर्ग-सहन : मनुष्य चार प्रकार से उपसर्ग करते हैं।51 यथा 41. (क) देवसेना गणिका (हास्य) :- हास्यपूर्वक क्षुल्लक पर उपसर्ग करती हुई देवसेना गणिका दण्डित की गयी एवं उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। तब क्षुल्लक ने राजा को श्रीगंह के उदाहरण से प्रतिबोधित किया। ___42. (ख) सोमभूति (प्रदेष) :- गजसुकुमार के श्वसुर सोमभूति ने प्रदेष भावना से गजसुकुमार पर उपसर्ग किये थे। 43. (ग) चन्द्रगुप्त (विमर्श) :- चाणक्य की प्रेरणा से चन्द्रगुप्त राजा ने धर्मपरीक्षा के लिये अन्तः पुर की रानियों द्वारा कहने पर साधु पर उपसर्ग किया। साधु के द्वारा उसे श्रीगृह का उदाहरण देकर प्रतिबोधित किया गया। ___44. (घ) स्त्रियों द्वारा काम-याचना :- ईर्ष्यालु चार प्रोषितपतिकाओं द्वारा पूरी रात एक संयमी साधु से काम-याचना कर उस पर उपसर्ग किया गया, किन्तु वह पर्वत की तरह अडिग रहा। पुरुष की दृढ़ता के कई कथानक जैन साहित्य में प्राप्त है। 45. असंदीन दीप जैसा आश्रम :- ऐसे दान आदि धर्म का उपदेश देना चाहिए, जिसमें पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा न हो। अन्यथा हिंसात्मक दान के कार्यों की प्रशंसा करने में दूषण है। जैसे असंदीन द्वीप (टापू) बहते हुए प्राणियों के लिए प्राणरक्षा का आश्रम होता है वैसे ही महामुनि के द्वारा जीवों की रक्षा करने वाला दान आदि धर्म का उपदेश है। समाधिमरण : समाधिमरण के प्रसंग में चार प्रकार के अपंडित मरणों को नियुक्तिकार द्वारा उदाहरण देकर समझाया गया है। 46. (क) आर्य वैर (सपराक्रम मरण):- आर्य वैर की कथा जैन साहित्य में अहुप्रचलित है। दस पूर्वो के ज्ञान को धारण करने वालों में आचार्य वैरसेण अंतिम थे। आसन्न मृत्यु को जानकर भी अन्होंने प्रमाद से अपने मरण के लिए पराक्रम किया और रथावर्त पर्वत के शिखर से गिर कर अपने प्राण त्यागे। 47. (ख) आर्य समुद्र (अपराक्रम मरण) :- आर्य समुद्र (उदधि) आचार्य स्वभाव से ही दुबले थे। बाद में जंघाबल के क्षीण हो जाने पर शरीर का कोई लाभ न देखकर अनशन धारण कर वह मृत्यु को प्राप्त हुए। ____48. (ग) तोसलि आचार्य (व्याघात-मरणं) :- तोसलि नामक आचार्य जंगली भैसों के डर से क्षुब्ध होकर चारों प्रकार के आहार को छोड़कर मृत्यु को प्राप्त हुए। द्रव्य संलेखना में दोष : ___49. साधु एवं राजा की कथा :- एक साधु ने 12 वर्ष तक संलेखना करके फिर मरण के लिए उद्यत होकर अपने आचार्य को निवेदन किया। आचार्य ने कहा- अभी और संलेखना करो। तब वह साधु क्रोधित होकर चमड़े और हड्डी मात्र शेष वाली अंगुली को चबाकर कहता है कि ऐसे शरीर में अब समाधि-मरण करने में क्या दोष है। आचार्य ने कहा कि तुमने मेरे मना करने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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