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कथाओं में सांस्कृतिक धरोहर/29
मूल्यांकन के लिए सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता है तथा समकालीन अन्य परम्परा के साहित्य की जानकारी रखना भी जरूरी है। यहाँ पर कुछ सांस्कृतिक सन्दर्भो का मात्र दिग्दर्शन ही किया जा सकता है। भाषात्मक दृष्टि: महावीर के उपदेशों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। अतः उनके उपदेश जिन आगमों में संकलित हुए है उनकी भाषा भी अर्धमागधी प्राकृत है। किन्तु इस भाषा में महावीर के समय की ही अर्धमागधी भाषा का स्वरूप सुरक्षित नहीं है, अपितु ईसा की 5वीं शताब्दी तक प्रचलित रहने वाली सामान्य प्राकृत महाराष्ट्री के रूप भी इसमें मिल जाते हैं। कुछ आगम ग्रन्थों में अर्धमागधी में वैदिक भाषा के तत्व भी सम्मिलित हैं। 'गचछंसु आदि क्रियाओं में 'इंसु प्रत्यय एवं ग्रहण के अर्थ में 'घेप्पई क्रियाओं का प्रचलन आदि आगमों में वैदिक भाषा का प्रभाव है। मागधी एवं शौरसेनी प्राकृत के भी कुछ छुटपुट प्रयोग इसमें प्राप्त है। सम्भवतः अर्धमागधी भाषा के गठन की प्रवृत्ति के कारण यह हुआ है। आगमों की भाषा को समझने के लिए कुछ भाषात्मक सूत्र आगमों में ही प्राप्त हैं। उन्हें समझने की आवश्यकता है।
इन आगमिक कथाओं की भाषा के स्वस्प एवं उसके स्तर को तय करने के लिए व्याख्या साहित्य में की गई व्युत्पत्तियों को भी देखना आवश्यक है। प्रकाशित संस्करणों के साथ ही ग्रन्थों की प्राचीन प्रतियों पर अंकित टिप्पण भी आगमों की भाषा को स्पष्ट करते हैं। पाठ-भेदों का तुलनात्मक अध्ययन भी इसमें मदद करेगा।
इन कथाओं के कई नायकों को बहुभाषाविद् कहा गया है। ज्ञाताधर्मकथा में मेघकुमार की कथा में अठारह विविध प्रकार की देशी भाषाओं का विशारद उसे कहा गया है। किन्तु इन भाषाओं के नाम आगम ग्रन्थों में नहीं मिलते। व्याख्या साहित्य में हैं। कुवलयमालाकहा में इन भाषाओं के नामों के साथ-साथ उनके उदाहरण भी दिये गये है। इन कथाओं में विभिन्न प्रसंगों में कई देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है। आगम शब्द-कोश में ऐसे शब्दों का संकलन कर स्वतन्त्र रूप से विचार किया जाना चाहिए।
जिंदू उल्लपडसाडया, वरइ, जासुमणा, रत्तबंधुजीवग, सरस, महेलियावज्जं, थंडिल्लं, अवओडय-बंधगयं, डिंभय, इंदट्ठाण आदि शब्द अन्तकृद्दशा की कथाओं में आये हैं। इसी तरह अन्य कथाओं में भी खोजे जा सकते हैं। कुछ शब्द व्याकरण की दृष्टि से नियमित नहीं हैं तथा उनमें कारकों की व्याख्या नहीं है।12 ये सब दृष्टियाँ इन कथाओं के भाषात्मक अध्ययन में प्रवृत्त होने की हो सकती है। पालि, संस्कृत के शब्दों का इन कथाओं में प्रयोग भी उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करेगा। काव्यतत्व: आगम ग्रन्थों की कथाओं में गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। कथाकारों के अधिकांश वर्णन यद्यपि वर्णक के रूप में स्थिर हो गये थे। नगर- वर्णन, सौंदय-वर्णन आदि विभिन्न कथाओं में एक से प्राप्त होते हैं अतः स्मरण की सुविधा के कारण उनकी पुनरावृत्ति न करके "जाव" पद्धति द्वारा उनका उपयोग किया जाता रहा है। किन्तु कुछ वर्णन विशुद्ध रूप से साहित्यिक हैं। संस्कृत के गद्य साहित्य की सौन्दर्य-सुषमा उनमें देखी जा सकती है। प्राचीन भारतीय गद्य साहित्य के उद्भव एवं विकास के अध्ययन के लिए इन कथाओं के गद्यांश मौलिक आधार माने जा सकते हैं।
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