Book Title: Prakrit Katha Sahitya Parishilan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 34
________________ 24/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन प्रभावित किया है। अश्वों को पकड़ने की कथा भी एक प्रतीक कथा है। जो अश्व लुभावने पदार्थों की ओर आकृष्ट हुए वे पराधीन हो गये, शेष स्वाधीन बने रहे। विषयों की आसक्ति के प्रति सजग रहने की बात इस कथा में कही गयी है। इसी विषय से सम्बन्धित कथा कुवलयमाला में भी आयी है।" विपाकसूत्र की कथाएँ कर्मफल को प्रतिपादित करने वाली कथाएँ हैं। किन्तु इनकी विषयवस्तु के आधार पर इन्हें सामाजिक कथाएँ कहा जा सकता है। इनमें समाज के उन सभी प्रकार के व्यक्तियों की वृत्तियों का वर्णन है, जो हिंसा, मांसाहार, क्रूर शासन, मद्यपान, वेश्यागमन, चोरी, मांस-विक्रय, कठोर दंड, दोषयुक्त चिकित्सा, ईर्ष्या, देव आदि अनेक समाज विरोधी व्यापारों में लीन थे। उन्होंने उसके दुष्परिणाम जन्मों तक भोगे, यही संम्प्रेषण देना इन कथाओं का उद्देश्य है। इन कथाओं में एक बात समान रूप से देखने को मिलती है कि हर अपराधी पात्र विभिन्न प्रकार के फलों को भोग कर अन्त में जब सद्गति को गमन करता है तब उसे सेठ के घर जन्म अवश्य लेना होता है। उसके बाद ही उसकी दीक्षा आदि सम्पन्न होती है। इस प्रकार के वर्णनों में कथातत्व में सदिता आ जाती है, किन्तु इससे कथाओं की समकालीन मान्यताओं की भी जानकारी मिलती है। विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध की कथाओं में केवल सबाहु की कथा वर्णित है। शेष कथाएँ संक्षिप्त हैं। इनमें दान का फल एवं पाँच सौ कन्याओं से विवाह सब में समान है। सन्दर्भ जैन, डा. जगदीश चन्द्रः प्राकृत नेरेटिव लिटरेचर, ओरिजिन एण्ड ग्रोथ, दिल्ली, 1981, पुस्तक द्रष्टव्य। 2. उपाध्ये, डा. ए.एन.: बृहत्कथाकोश की भूमिका। 3. आदिपुराण, सगेउ,श्लोकशा 4. हरिवंशपुराण, सर्ग 7, श्लोक 124 आदि। 5. शास्त्री, डा. नेमिचन्द्रः आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ.136। 6. डा. फतेहसिंहः भारतीय समाजशास्त्र के मूलाधार, पृ. 137। . 7. धम्मकहाणुओगो, मूल, पृ.41 8. शास्त्री, देवेन्द्र मुनिः ऋषभदेव- एक परिशीलन, पृ. 118 आदि । 9. देखें वही। 10. धम्मकहाणुओगो, मूल, पृ. 6-231 11. शास्त्री, पं. कैलाशचन्द्रः जैन साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका, पुस्तक द्रष्टव्य। 12. देखें, पेन्जरः 'द ओसन आफ स्टोरी' भूमिका। 13. जैन, शिवचरणलालः आचार्य बुद्धघोष और उनकी उट्ठकथाएँ, दिल्ली. 1969 । 14. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 22, गा. 41-521 15. आख्यानमणिकोश, कथानक संख्या 15, पृ. 611 16. रयणयूडरायचरियं, सं. श्री विजयकुमुदसूरि, पृ. 541 17. तीसे काणगपडिमाए, मत्थयाओं तं पउम अवणेइ। -घ.क.पृ.43 18. पिहेत्ता परम्मुहा चिट्ठति। -ध.क.पृ.43 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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