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प्रथम आगम कथा साहित्य
आगम परिचय : प्राकृत भाषा में जो साहित्य, लिखा गया है, उसमें आगम साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। जैन परम्परा में भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट शिक्षाओं के लिए आगम शब्द अधिक प्रचलित हो गया है, जिसे प्राचीन काल में श्रुत अथवा सम्यक्श्रुत कहा जाता था। आप्तवचन, प्रवचन, जिनवचन, उपदेश आदि अनेक शब्द आगम के लिए प्रयुक्त हुए हैं।' महावीर के उपदेश तत्कालीन लोक भाषा अर्धमागधी में प्रचलित हुए थे। अतः आगमों की भाषा भी प्रमुख रूप से अर्धमागधी है। महावीर से उनके शिष्य गणधरों ने जैसा सुना था, उस अर्थ को अपने शब्दों में निबद्ध कर दिया था। फिर उस शब्द एवं अर्थरुप उपदेश को अपने शिष्यों को सुना दिया था। इस प्रकार श्रुत परम्परा से महावीर के उपदेशों को आगम के रूप में सुरक्षित रक्षा गया है। वर्तमान में उपलब्ध आगमों में केवल महावीर के ही शब्द नहीं हैं, अपितु उनमें गणधरों और उनके शिष्यों का प्रस्तुतीकरण भी सम्मिलित है। फिर भी आगमों की विषय वस्तु के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि आगमों के मूल रूप में बहुत कम परिवर्तन हुआ है। आगम वर्तमान युग को महावीर की वाणी से जोड़ने में सेतु का काम करते हैं।
आगमों के संकलन में एवं उनको सुनिश्चित स्वरूप प्राप्त करने में लगभग 1000 वर्षों का समय लगा है। इस सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण के दो सौ वर्ष बाद श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। वे महावीर के समस्त श्रुतज्ञान के अंतिम उत्तराधिकारी थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भीषण अकाल के कारण मुनियों का संघ अव्यवस्थित हो गया। अतः देश-काल की परिस्थिति के कारण महावीर द्वारा कथित आगमों का ज्ञान क्रमशः क्षीण हो गया। वीर-निर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् बारहवें अंग दृष्टिवाद आगम का कुछ अंश ही शेष रह गया था। उसी के आधार पर धरसेन आचार्य के तत्वावधान में षट्खण्डागम और गुणधर आचार्य के तत्वावधान में कषायपाहुड नामक आगम सूत्र-ग्रन्थ लिखे गये। इन ग्रन्थों की भाषा शौरसैनी प्राकृत है। आगे चलकर इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द आदि दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने जैन दर्शन के स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे। इन ग्रन्थों को शौरसैनी आगम कहा जाता है।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के उपदेशों को मूल रूप से सुरक्षित रखने के लिए जैन मुनियों ने अनेक वाचनाएँ की हैं। महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष बाद पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र आचार्य के स्मरण के आधार पर ग्यारह आगमों का संकलन किया गया। किन्तु वहाँ उपस्थित आचार्यों को बारहवें ग्रन्थ दृष्टिवाद का स्मरण न होने से उसका स्वरूप संकलित नहीं किया जा सका। इस प्रथम वाचना में व्यवस्थित आगम साहित्य जब पुनः
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