Book Title: Prakaran Samucchay
Author(s): Ratnasinhsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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प्रकरण समुच्चयः
॥२५॥
ROCKET
वेलावहाणाइगुणोववेयं, करेज चीवंदणमायरेण । अझनिव्वाणफलं तिसंझ, पमोयरोमंचियमंगुवंगो ॥ ४० ॥ जहोचियाओ || शुध्धधमे किरियाउ हाणी. सयं च तेसिं च न पाउणन्ति । काले विहाणेण तुमं गुरूणं, करेग्ज पुज्जाणमुवासणंति ॥४१॥ तहा असंदिद्धमणो ग्योपदे सुणेज्ज, सिद्धुतसंसिद्धषयत्थसत्थं । कहिंचि संदेहमुवागोऽवि, बहुस्सुए तत्थ पमाणएज्जा ॥ ४२ ॥ पयंपएणं परिसंठविन्तो, तयत्थमच्चत्थमगुस्सरंतो। संवेयनिव्वेयरसं फुसंतो, सज्झायमउझीणमणे सरिज्ज ॥ ४३ ॥ एवं च सामाइयमाइकिच्चे, लोगुत्तरे चत्तपमत्तभावो । उदग्गवेरग्गसमग्गचित्तो, जत्तं ससत्तीऍ पवत्तएज्जा ॥४४॥ अकंडचंडानिलसंपणुएणविलोलजालासयसंकुलमि । जहा पलित्तंमि ( ज्वालते ) गिहे न जुत्तो, सुबुद्धिणो जागरओऽणुरागो ॥ ४५ ॥ एमेवमचंतमभियांमि, जराइ मच्चूइ भवंमि निच्चं । विवेयवं निक्खमणेकचित्तो, ण रज्जए कत्थइ वत्थुभेए ॥४६॥ अव्वंगसीलंगमणंगरंगभंगक्खमं चत्तसमत्थसंगो । पउत्तजत्तो य जहुत्तमेव, कया णु चारित्तमहं चरिस्सं ? ॥४७॥ एवं सुचिंतापरमो गिहंमि, वेसागिहावाससमं वसिज्जा । तुमं तओ अप्पडिबद्धभावो, णढे विणलुमि न मिज्जासत्ति ॥४८॥ विसुज्झमाणज्झवसायजोगा, कम्मे किलिटुंमि पलीयमाणे । इहं जसो चित्त चए सुहं च, सग्गोऽपवग्गो य परत्थ होइ ॥ ४९ ॥ तुम्हाणं भणियं मए जिणमउद्देसेण संखेवो, एयं निम्मलधम्मकम्मविसए जोग्गत्तसूयापरं । ता तुम्भं भणियाणुसारविहिणा बडेज्जहा सव्वहा, संसारासयऽसंखदुक्खणिहणो मोक्खो जओ नऽन्नहा ।। ५०॥ इति शुद्धधर्मयोग्यजावोपदेशपञ्चाशिका समाप्तेति ॥ १४ ॥
॥२५॥ ॥ अथ हितोपदेशकुलकपञ्चविंशती द्वे ॥ १५॥ निसुणंतु खणं परिरंभिऊण भव्वा! मणं समाहिम्मि । उवएसलेसमणवज्जकज्जमेयं भणिज्जंतं ॥१॥ दुलहं ता मणुयत्ते पत्ते
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