Book Title: Prakaran Samucchay
Author(s): Ratnasinhsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रकरण समुच्चयः
॥१०९॥
मा कुटुम्बमोहं परिभाविसु एरिसं तत्तं ॥७॥ जुम्मं । जिणधम्मो मह सरणं गुरुचलणे भावओ नमसामि । सम्बजिएK मित्तिं नियदुच्चरियं च उपदेश द गरिहामि ॥ ८ ॥ आजम्मं जं तुमए तीसुवि संझासु मग्गियं भह ! । राहावेहसमं तं साहिय गिण्हेसु जयपडायं ॥९।। जइ जिय! तुह नव- कुलकं ४५
कारो होहिइ हिययंमि भावणासाहेओ । ता सग्गासवसुहं मह जाणसु करसंठियं अज्ज ॥ १० ॥ एयं परमरहस्सं तं निसुण महाणुभाव ! एक्कमणो । जिणमयभावियचित्तो जं अज्ज करेसि सुहडतं ॥ ११॥ दाणं दाऊण बहुं तवपि तविउ सुदीहरं कालं। सलं चरिऊण चिरं | पडिउं तह णेगसत्थाई ।। १२ ।। कारिय जिणभवणाई सद्धाए सेविऊण गुरुपाए । सवस्सवि फलमेयं जं अज्ज करेसि धीरत्तं ॥ १३ ॥ एयं काऊण तुम मा पत्थसु मणुयसग्गरिद्वीओ। मग्गसु पुणोऽवि एवं सुहाण सव्वंगवरबीयं ॥ १४ ॥ मंगलनिहिपायपउमनाहांम जिण
हवेज्ज पडिवित्ती । जिणधम्ममि गुरूसु य चिंतिज्ज तुम इमं जीव ! ॥ १५ ॥ इय तं पंडियविहिणा काउं आराहणं चरिमसमए । तं नत्थि M. किंपि नूणं कल्लाणं जं. न पाविहिसि ॥ १६ ॥ ॥ इति पर्यन्तसमयाराधनाकुलकम् ४४ ॥ ॥अथोपदेशकुलकम् ४५॥
चिंतसु उवायमेयं संसारे गरुयमोहनियलाओ । चिरकालसेवियाओ रे मुच्चसि इह कहं ? जीव! ॥ १॥ मोहविस अवणेउं गुरुदेसणमंतसंगमवसाओ। परिभावितो तत्तं उवएसामयरसं पियसु ॥२॥ कुणसु दयं भणसु पियं मुंच परधणं चएसु परमहिलं। इच्छं निरुभिऊणं इंदिय-14 | पसरं तह जिणेसु ॥ ३ ॥ सयलंपि हु सामगि धम्मे लहिऊण करवि रे जीव । सययं चोइज्जंतो मा हारह एरिसं जम्मं ॥४॥ कह एवं
मणुयत्तं कह एसो तुज्झ जीव! जिणधम्मो । हद्धी पमायजडिओ मा वच्चह घोरसंसारं ॥ ५॥ का माया को य पिया को पुत्तो पणइणीवि ४. का तुज्झ ? । जह विज्जुल्लाजुको दीसइ एयं तहा सयलं ॥ ६ ॥ किं नेहं किं दविणं देहंपिहु तुज्झ जीव! किं एयं ?। नडपेच्छणयसरूवं|
नाउं तं चयसु गयमोहो ।। ७॥ एकोरिचय जीव! तुम भमिओ अइदुक्तिओ अणाहो य । तो तुज्झ परित्ताणं विहियं कणइ मणागपि ||
For Private and Personal use only

Page Navigation
1 ... 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133