Book Title: Prakaran Samucchay
Author(s): Ratnasinhsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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प्रकरण समुच्चयः,
॥१२५॥
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कलाइयाणमणुसारओ जहाविसयं । उभयपयसेवगा जे अ तेऽवि नो तुज्झ रोयंति ॥ ८७ ॥ उस्सग्गष्पमुहसमत्थनयमयम यमरो अमाणस्स । कह नज्जइ निरवज्जा मण ! जिणमयपरिणई तुज्झ ? ॥ ८८ ॥ तव्विसए सुअनिहिणो बहु पुच्छसि विकि (जे विकी) रएतत्तं । नायंति किंपि दंसं निरुवसमं चित्त ! घिराणं ॥ ८९ ॥ एवं च तुज्झ न गिलाणकज्जविसया णु जायए चिंता । कालागुरूवगुणिगोअरं च न पमोअकरणं च ॥ ९० ॥ वच्छल्लथिरीकरणोववूहणाइवि न चैव सव्वत्थ । अविगाणेणं चिंतसि साहिप्पाया जइ कहिंपि ॥ ९१ ॥ जुम्मं ॥ एवंविहं च कुग्गहचकं हित्तुं विवेअचक्केणं । सकोवाहिसुद्धं सद्धम्मे कुणसु पडिबंधं ॥ ९२ ॥ (आत्मानुशास्तिद्वारं) जइ ता तत्तगबेसी ता अणणुभवि माणिअं सव्वं । अह् न तहा ता तम्माणणेऽवि सव्वं अणणुभूओ ।। ९३ ।। हियइच्छियाइं जह जह संपज्जतीह कह वे जीवाणं । तह तह विसेसतिसियं चित्तं दुहियं चिय वरायं ॥ ९४ ॥ रागाई हि यवत्थं इओ तओ साहिउं किलेसबसा । जह जह तमणुभवेइ तह तह परिबुड्डूई रोगो |||१५|| उबभोगोवायपरो पसमेउं महइ विसयतण्डं जो । नियछायकमणकए एरोऽवरहे पहावे || ९६ ॥ मुट्ठवि भुत्ता भोगा सुडुबि रमियं पिएहिं सह निच्चं । सुविपियं सरीरं हा ! जिय! कइयावि मुत्तव्वं ।। ९७ ।। जम्हा उ विसेसेणं सीयंति इमेसु कयमणा मणुआ। एएण कारणेणं विसयत्ति निरुत्तमे सिं ॥ ९८ ॥ एए उ महासलं इमे महासत्तुणो परं लोए । एए उ महाबाही एए य परमदारिदं ॥ ९९ ॥ सल्लं हिअयनिहित्तं न सुहल्लं देइ देहिणो उ जहा । अंतो विचितिआ तह विसयाबि दुहावहा चैव ॥ १०० ॥ जह नाम महासत दावेइ कयत्थणाविविहाओ । एमेव य विसयाविद्दु अहवा एए परभवेऽवि ॥ १०१ ॥ जह नाम महावाही विहरत्तं कुणइ इहभवंमि तहा । विसयावि नवरमेए भवंतरेसुवि अनंतगुणं ॥ २ ॥ ठाणं पराभवाणं सव्वाण जहेह परमदारिदं । विसयावि किर तहचिअ पराभवाणं परं ठाणं ॥ ३ ॥ पत्ताई पार्श्विती पाविज्जंसी य बहूणि बहवोऽवि । परिभवपयाई पुरिसा ते जे विसयामिसपसत्ता ॥ ४ ॥ मन्नइ तणंपिव जगं संदेहपयमि पविसइ
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सवगरंगमाला ४८
।। १२५ ।।

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