Book Title: Prakaran Samucchay
Author(s): Ratnasinhsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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प्रकरण समुच्चयः
॥ ११६॥
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य तुहु जीव ! । समइ वहतइ किंपि करि जिंत्र न झूरहि कवि ! || ४८ || धम्भुवएसं दारं अहं जणे संभवतवयणेहिं । चित्त लिहिउव्व होउं | संपइ मूयत्तणं पत्तो ॥ ४९|| धम्मगिरं सुणिरेहिं अंतोहसिरेहिं हुंतिभणिरेहिं । विउसित्तिगव्विरेहिं इह केहिवि पयडिओ भावो || ५० || अप्पं निंदहिं परु थुणहि, ईण विरंगु म काहि । कज्जदुवारिं रंगु जइ तो जिय ! तुट्ठउ थाहि ॥ ५१ ॥ किं चिंताए किं पलविएण किं तुज्झ जीव ! रुन्नेणं । नो कत्थइ कल्लाणं धम्माउ विणा तुमं लहसि ॥ ५२ ॥ जाणतो सिक्खविओ अवायदसीहिं सुयहरेहिंपि । दुक्खं खु संठविज्जइ एसो अप्पा दुरप्पा हु || ५३ || धम्मह सारु परूवियं दंसिउ सिवपुरमग्गु । निद्दलंतिहिं लोयाणिहिं, हियडइ किंपि न लग्गु ॥ ५४ ॥ ओ ! ताण दुरंताणं धी धी जीवाण जीवियव्वेणं । परगेहपेसणरओ जाणं जम्मो कओ विहिणा || ५५ ॥ हियडइ भाउ समुच्छलिओ, जिणि लंघेउ संसारु जइ मण होइवि थिरु कवि चिंतइ एक्कु जि सारु || ५६|| भाववियक्खाणि गुरुवयणि, विलसंतइ सव गेहिं । गुरुयचमक व मक्कियहिं इय चिंतिउं भविएहि ॥५७॥ जह जह जिज्झइ हियडुलं, कयकज्जिहिं छन्नेहिं । किं गुरु अइसयनाणियउ, किं कहिओ अन्नेहिं ? ।। ५८ ।। मई अवगन्नि गुरुवयणु, धम्मि न दिन्निय दिट्ठि । अहह गयउ चिरकालु महु, कीय कुटुंबह विट्ठि ॥ ५९॥ ललि करेविणु पल्लिकरि, सीसं खल्लीकरेहि । विल्लीदुद्देविणु अस्थिकरि | विणु पुन्निहि न लहेहिं ॥ ६० ॥ मंगलमुहलो लोओ दहुं सोउंपि मंगलं महइ । ईहेइ मंगलाई कुणइ पुण अमंगलं सयलं ॥ ६१॥ अंचणरहियं दुर्द्ध नहु जम्मइ भूरिमंगलेहिंपि । तह हयधम्मे न सुहं धम्मे पुण मंगलं सउणो ।। ६२ ।। लिहियं लब्भइ लोइ, काहुं देहिं ऊरियइ । अप्पसमाणा जोइ, जइ पुणु काई धीरियहं ।। ६३ ।। परभवि जिन किय धम्मुला, तह एत्तिउ एउ जोइ । हिवहिं पुत्ता ! चग्गियइ, मन रोवइ तुहुं रोइ || ६४ || मन्नइ न चेव चोरो चोरियवत्थूणि पुच्छिओ संतो । जाव न जज्जरियंगो विहिओ घोरेहिं घाएहिं | | ६५ || धम्मुज्जमं न काउं | मन्नइ साहूहिं चोइओ एत्थ । जाव न नरयं पत्तो विहलं पुणे तत्थ मन्तयणं ॥ ६६ ॥ खइरहलट्ठि न फरहरइ जणुहुं उप्परि जाव । खरिहिं
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प्राकृते संवेगामृतपद्धतिः ४७
॥ ११६ ॥

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