Book Title: Prakaran Samucchay
Author(s): Ratnasinhsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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प्रकरण समुच्चयः
॥१०२॥
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हयासतया || ४८ ॥ एयाए भावणाए जइ अवसाणंपि मज्झ किर होज्जा । ता अयं चिय धन्नो नहु अन्नं पत्थणिज्जति ।। ४९ ।। भावणअमियं अहवा कम्मवसा मा समुल्लसउ मज्झ । अन्नस्सवि दहूणं एयं घुंटेसु किं कइया ? ।। ५० ।। वेरग्गभावणाए किंवा वच्चंतु मज्झ | दिहाई । निययियचिंतियाई लब्भंति नवत्ति को मुगइ ? ।। ५१ ।। एयं भावणतत्तं सव्वंगं तुज्झ जीव ! जइ फुरइ | पंचुत्तरवासीणवि सोक्खं मन्नामि ता तुच्छं ॥ ५२ ॥ एगंते होऊणं मुहुत्तमेत्तं विसिद्धमंत व । पइदियहं झाएज्जह एवं उवएसवरतत्तं ।। ५३ ।। जह दीवाओ दीवो बोहिज्जइ भावणाऍ तह भावो । इय पढछ गुणह झायह भविया एयं सया सत्यं ॥ ५४ || सिरिरयणसिंहसूरी भावणसिह रम्मि | आरुहेऊणं । अप्पाणुसासणं भो जंपइ जिणसासणे सारं ॥ ५५ ॥ बारसअउणत्ताले ( १२४९) वइसाहे सेयपंचमिदिणम्मि । अणहिलवाडजयरे विहियमिणं अप्पसरणत्थं ।। ५६ ।। इति आत्मानुशासनकुलकम् ४० ॥ ॥ अथ आत्महितकुलकम् ४१ ॥
निगुरुपायपाया नाउं संसारविलसियविवागं । सम्मं विरत्तचित्तो अप्पहियं किंपि चिंतेमि ॥ १ ॥ कालोचिय जिणआणं काउं तण्हालुयस्स मह् सययं | हा ! जिय ! पमायवेरी न देइ धम्मुज्जमं काउं ॥ २ ॥ जइ एवं सामाग्गिं धम्मे लहिऊण कहवि हारोसे। ता तं पच्छायावा वि हलं विलवेसि परलोए || ३ || रागंधो मोहंधो कज्जाकज्जं न याणासे हयास ! । धत्तूर भाभिओ इव सव्वं पिच्छति सुवन्नमहो ॥ ४ ॥ वेर|ग्गमग्गलीणं खगमेगं जइ करेमि अप्पाणं । चंचलचितेण पुणो विहलिज्जइ ही नियंतस्स || ५ || एक्को चेव दुरंतो नियचरियं जो वियाणई अप्पा । सो ताव रंजियवो जइ इच्छसि साहि धम्मं ॥ ६ ॥ जइ इच्छसि अप्पसुई खिन्नोऽसि दुहाण ता कुग उवायं । मा कांदेवे ववंतो | सालीण गवेसणं कुणसु ॥ ७ ॥ जं आसि धम्मबीयं पुत्र्वभवे वावियं तए जीव ! । तं इह लुगालि संपइ वावियमिहि लुगासे अग्गे ॥८॥ इय नाऊण अकज्जं दूरे वज्जेसि किं ? नहु अणज्ज ! | अह कालपासबद्धो जुत्ताजुतं कह मुणेसि ? ॥ ९ ॥ इंदियचोरेहिं अहं मा भवन्न
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आत्महित कुलकम् ४१
॥१०२॥

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