Book Title: Prakaran Samucchay
Author(s): Ratnasinhsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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प्रकरण समुच्चयः
॥ १०५ ॥
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ज्जम्मि । एस तुहं तं काही सयावि जह दुक्खिओ होइ ॥ १४ ॥ जह इंदजालिएणं काउं मुट्ठीइ दासयं वत्थू । धरिओ जणेण मुट्ठी दिडं नट्ठ तयं वत्थू ।। १५ ।। एवं चिय मणवत्थू संजममुट्ठीइ धारियं कहवि । सुहभावलोयधरिओ ही नहं हीनपुन्नस्स ॥ १६ ॥ न हु अस्थि किंपि नूर्ण चंचलमन्नं मणाउ भुवणाम्म । तं पुण उवमामेत्तं पवणपडागाइ जं भणियं ॥ १७ ॥ साहूण सावगाण य धम्मे जो कोइ वित्थरो भणिओ । सो मणनिग्गहसारो जं फलसिद्धी तओ भणिया ॥ १८ ॥ जत्थ मणो तरलिज्जइ सो संगो दूरओऽवि चइयव्वो । बहुरयणसणाहेणं दुज्जयचोराण जह पंथो ।। १९ ।: जिय! अज्जं अह कल्ले परलोए तुह पयाणयं होही । दीहरसंसारकए निरंकुस कह मणं कुणास ? ||२०|| किमहं करोमि कस्स व कहेमि चिंतेम अहव किं तत्तं ? । जेण मणो पसरतं धारेमी मत्तहत्थिव्व ॥ २१ ॥ संपइ सत्थसरीरे सुमरंति न जीव ! पुव्वदुक्खाई । कह एसु न उब्वेओ कह होहिसि तं न याणामि ? ।। २२ ।। जाणिय तत्तंपि मणो धारिज्जइ दुकरं सरलमग्गे । दुक्खं च सिक्खविज्जइ एसो अप्पा दुरप्पा हु ||२३|| आवाडए जिय! दुक्खे जाणसि किर संजमो हवइ धम्मो । संपइ पुण गयधम्मो परलोए होसि अहह कहं ? || २४ || इंदियलोलो कोऽविहु बट्टइ सहाइएसु विसएसुं । तहविहु न होइ तित्ती तहाच्चय वित्थरइ नवरं || २५ | इंदियधुत्ताण अहो तिलतुसमित्तंपि देसु मा पसरं । अह दिनो तो नीओ जत्थ खणो वरिसकोडिसमो ।। २६ ।। धतूरभामिओ इव ठगधुत्तेणं व धुत्तिओ संतो। भूएण व संगठिओ वाएण व दिट्टिमोहेणं ॥ २७ ॥ जह एए अवरेहिं जुत्तिसहस्सेण पन्नावज्जंता । ताणंविय गहिलत्तं अवियप्पं वाहति सया || २८ ।। तह रागाइवसत्तो न मुणसि थेवंपि कज्जपरमत्थं । अह मुणास तो पर्यापह चरिएणं कह विसंवयसि ? ॥२९॥ दुग्गंधअसुइपुन्नो बाहिं सव्वत्थ चित्तिओ करगो । पट्टसूयनन्त (ढंक) णयं दाडं पिहिओ य पुष्फेहिं ॥३०॥ दिट्ठो हरेइ चित्तं गंधो असुईऍ सरइ तं चैव । मूढोऽवि तं न गहिउं कुणइ मणं किं पुण विवेगी ? ॥ ३१ ॥ एवं चिय नारीसुं वत्थालंकारभूसियंगी | आवायमेत्तरूवं पेच्छिय
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मनोनिग्रह कुलकम् ४२
॥१०५॥

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