Book Title: Prakaran Samucchay
Author(s): Ratnasinhsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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प्रकरण समुच्चयः
॥१०॥
एएवि कह कहगा अत्तपमायं न चिंतयंति फुडं । जं दूसमाइ सव्वं छोढुं वदति वज्जसिरा ॥ १३॥ परगरिहं मुत्तर्ण अहवा चिंतेसु अत्तणोऽआत्मानुअत्तं । अन्नह तुमंपि होहिसि पुब्वाणं मूढ! सारिच्छो ॥ १४ ॥ जा न विहाई रयणी तावय चिंतेसु जीव किंपि तुमं । अन्नह आउंमि गए शासन ४० कीणा चिंताइ तुज्झ कहा? ॥ १५ ॥ कामवियारविहूणो धन्नो इह चिंतए परं तत्तं । जइ पत्तोऽवि वियारं चिंतइ धन्नाण सो राओ ॥ १६ ॥ काऊण गुरुपइन्नं मणमोहणकरिवरम्मि जह चडिओ । चुक्कइ नियवयणाओ धन्नोऽवि तहा वियारगओ ॥ १७ ॥ ता पढमंपि वियारं मणमोहणकरिवरस्स सारिच्छं । वारह दुहसयमूलं जइ इच्छह सुहसमिद्धीओ ॥१८॥ पंचहिवि इंदिएहिं अणंतसो नत्थि जं किर न भुत्तं । तहवि न जाया तत्ती ता चेययसि हा कया मूढः ।।१९।। अह चेययसि कइयाविहु थेवोऽविह जत्थ नत्थि कोइ गुणो । एसा पुण सामग्गी कयायि | होहित्ति को मुणइ? ॥ २० ॥ सयलंपि भवसरूवं नाऊणं गुरुमुहाओ मुणिणोवि । वर्ल्डति जे अकज्जे अहह महामोहविप्फुरियं ॥ २१ ॥ भणसि मुहेणं सव्वं तत्तं अइसुंदरं तुम जीव ! । जं न कुणसि कारणं तं मन्ने गरुयकम्मोऽसि ॥ २२ ॥ चिट्ठइ राई पासइ न कोइ हवउ | जह तहवऽणुट्ठाणं । इय मूढ ! लोयरंजय कुणमाणो किंपि न लहसि ॥२३॥ जइ एगोच्चिय रागो निग्गहिओ होज्ज जीव ! संसारे । अट्ठण्हवि | कम्माणं ता उच्छेओ कओ झत्ति ॥२४॥ को दिव्वं लंघेउं अहवा सका वियाणमाणोऽवि । तहबिहु उज्जमसीलो होज्ज सया रायविजयम्मि ||२५|| जो चिंतइ न परतत्तं देइ कुबुद्धिं वयाउ भंसेइ । तेण समं संसग्गी वज्जह दूरेण मणसावि ।।२६॥ पाएण दूसमाए धम्मे संसग्गिया इह पमाणं । तेण सुमित्तेहिं समं संसरिंग कुणसु जाजीवं ॥ २७ ॥ जइ पुच्छह निच्छयओ न गिही साहूवि पावइ भवंतं | भावेण केवलंपिडु लधुणं जाइ निव्वाणं ॥ २८ ॥ गाहाण सिलोगाणं अत्यं नाऊण सव्वभंगेहिं । तत्थवि तं महुनायं भावण अमियं जओ झरइ ॥२९॥ अवहियहियओ होउं खणे खणे अप्पयं विभावसु । कत्तो अहमायाओ गंतूण कहिं कमणुहोहं ॥ ३०॥ सव्वगुणाणं जोग्गं अप्पाणं | ॥१०॥
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