Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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बाईसवाँ क्रियापद - अष्टविध कर्मबंध आश्रित क्रियाएं
.... १ का बंध करने वाले सदैव बहुत होते हैं। शेप बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों की तरह तीन-तीन भंग कहना चाहिये। जिस प्रकार प्राणातिपात के एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा दो दण्डक कहे उसी प्रकार सभी पापस्थानों के एक वचन और बहुवचन के भेद से प्रत्येक के दो-दो दण्डक होने से अठारह पापस्थानकों के कुल १८x२-३६ दण्डक होते हैं। ____ यहाँ पर जो प्राणातिपात से कर्म प्रकृतियों का बन्ध एवं क्रिया की पृच्छाएं की गई है। वे प्रमत्त अवस्था की ही समझनी चाहिए। .
अष्टविध कर्मबंध आश्रित क्रियाएं जीवे णं भंते! णाणावरणि कम्मं बंधमाणे कइकिरिए? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।
भावार्थ - प्रश्न - हे. भगवन् ! एक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ कायिकी आदि पांच क्रियाओं में से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? ।
उत्तर - हे गौतम! वह कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है।
एवं जेरइए जाव वेमाणिए।
भावार्थ - इसी प्रकार एक नै:यिक से लेकर यावत् एक वैमानिक तक के आलापक कहने चाहिए।
जीवाणं भंते! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणा कइकिरिया? गोयमा! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अनेक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए, कितनी क्रियाओं वाले होते हैं?
उत्तर - हे गौतम! वे तीन क्रियाओं वाले, चार क्रियाओं वाले और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। एवं णेरइया णिरंतरं जाव वेमाणिया।
भावार्थ - इस प्रकार (सामान्य अनेक जीवों के आलापक के समान) नैरयिकों से लेकर लगातार वैमानिकों तक के आलापक कहने चाहिए।
· एवं दरिसणावरणिज्जं वेयणिज्जं मोहणिज्जं आउयं णामं गोत्तं अंतराइयं च अट्ठविहकम्मपगडीओ भाणियव्वाओ, एगत्त पोहत्तिया सोलस दंडगा भवंति॥५८६॥
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