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--"जीवन रथ के दो पहिए आचार और व्यवहार'
इस प्रकार के पत्रों के जरिए-पूज्य आचार्य श्रीने जीवन को नीति-न्याय से विभूषित करने के नुस्खे बताएँ हैं और जैन दर्शनानुसार जीने की कला भी सिखाई हैं।
यदि हम इन पत्र-पुष्पों, के पुष्पहार अपने कंठ में धारण कर ले, तो निश्चय ही हम मुक्ति-मंदिर के स्वर्ण सोपान चढ़ सकते हैं। ये पत्र शाश्वत सुख की सौरभ से भरे पड़े हैं। ये पत्र दुर्लभ मणि-मुक्ता हैं। इनका चिन्तन मनन रुप दो भाई कल्याण के असंख्य द्वारा खोलने में सक्षम हैं। ये पत्र, ज्ञानी गुरुदेव के हृदय/हिमगिरी सेनिकली गंगोत्री की तरह प्रवाहित निर्मल जलधारा के समान होने से, मानव-मन में असंख्य शुभ भाव एवं शुभ अध्यवसाय की तरंगे आलोकित करेंगे। ये पत्र बाह्य जगत के भोगवाद, --जड़वाद एवं क्षण भंगुरता रूप सुख के दलदल से निकाल कर हमें शाश्वत सुख के कुसुम-वन में ले जाने वाले अनमोल रत्न हैं। ___ अन्त में, आचार्य श्री की लेखन-शैली के विषय में मैं केवल इतना ही कहूँगा कि- 'हाथ कंगन को आईने की क्या आवश्यकता हैं ?'' मुझे आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरिजी ने भूमिका लिखने का आदेश दिया, तब मैंने 'पथ के फुल' को आद्यान्त पढ़ा, इनका चिन्तन-मनन करने पर मुझे अतिशय आनन्दाभूति हुई, मेरा चित्त-प्रसन्न हुआ, पत्र-पुष्यों के प्रभाव से रोम-रोम पुलकित हुएँ, वीतराग प्रभु की भक्ति के मधुर संगीत से रोम-रोम अनुगुंजित हो उठे।
-: दो शब्द अनुवादक के लिए भी :___श्री रंजन परमारजी ने गूजराती पत्रोंका सरल व सुबोध हिन्दी में अनुवाद किया हैं, वह सराहनीय हैं। वे मेरे ही शिष्य-रत्न हैं और दक्षिण भारत में हिन्दी साहित्यकार के रुप में विख्यात हैं। मेरे आशिष व शुभभाव उनके साथ सदैव है कि-वे सत्साहित्य सृजन में सदा जागृत हैं।
मेरा सूचन
श्री अरुणोदय फाउन्डेशन कोबा से नम्र अनुरोध हैं कि- योगनिष्ट आचार्य गुरुदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. के समग्र अध्यात्मसाहित्यों को सजाध जा कर हिन्दी में प्रकाशित करें, जिससे मानव कल्याण का राह प्रशस्तव सरल बनें।
श्री मद जी के कर्मयोग की भूमिका में लोकमान्य तिलक जैसे विद्वान को लिखना पड़ा कि- यदि आचार्य श्री का “कर्मयोग' पढ़ लेता तो में अपना गीता रहस्य ग्रंथ कभी नहीं लिखता। ऐसा असाधारण ग्रंथ 'कर्मयोग'' के लेखक-कर्मयोगी-श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. “अलंकार: भुवः' अर्थात् विश्व के अलंकार थे। उनके
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