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सवाल जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में हम प्रथम अध्याय में काफी विवेचन कर चुके
- है। अब इस अध्याय के अन्दर हम यह देखना चाहते हैं कि इस जाति का क्रमागत् अभ्युदय किस प्रकार हुआ, किन २ महापुरुषों ने इस जाति की उमति के अन्दर महत्व पूर्ण भाग प्रदान किया। बाहर के कौन २ से प्रभावों ने इस जाति की उन्नति पर असर डाला और किस प्रकार अत्यन्त प्रतिष्ठा और सम्मान को साथ रखते हुए यह जाति भारत के विभिन्न प्रान्तों में फैली।
___ओसवालों की उत्पत्ति का इतिहास चाहे विक्रम सम्वत् के पूर्व १०० वर्षों से प्रारम्भ होता हो, चाहे वह संवत २२२ से चलता हो; चाहे और किसी समय से उसका प्रारम्भ होता हो, मगर यह तो निर्विवाद है कि ओसवाल जाति के विकास का प्रारम्भ संवत् १०.. के पश्चात् ही से शुरू होता है, जब कि इस जाति के अन्दर बड़े २ प्रतिभाशाली आचार्य अस्तित्व में भाते हैं। जिनकी विचार धारा अत्यन्त विशाल और प्रशस्त थी। इन आचार्यों ने मनुष्य मात्र को प्रतिबोध देकर अपने धर्म के अन्दर सम्मिलित किया और इस प्रकार जैन धर्म और ओसवाल जाति की वृद्धि की ।
ओसवाल जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त
श्री रवप्रभसूरि ने जिस महान सिद्धान्त के उपर इस जाति की स्थापना की, वह सिद्धान्त हमारे खयाल से विश्ववन्धुत्व का सिद्धान्त था। जैनधर्म वैसे ही विश्ववन्धुत्व की नींव पर खड़ा किया हुमा धर्म है, मगर आचार्य श्री के हृदय में ओसवाल जाति की स्थापना के समय यह सिद्धान्त बहुत ही ज़ोरों से लहरें ले रहा होगा । आजकल प्रायः यह मत अधिक प्रचलित है कि ओसवाल धर्म की दीक्षा केवल
ओसियाँ के राजपूतों ने ही ग्रहण की थी। मगर एक उड़ती हुई किम्बदती इस प्रकार की भी है कि राजा की भाशा से और ओसियाँ देवी की मदद से सारी भोसियां नगरी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूव सब यहाँ तक कि स्वयं ओसियाँ माता तक एक रात में जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण कर भोसवाल नाम से मशहूर हुए। हम नहीं कह सकते कि इस किम्बदंती के अन्दर सत्य का कितना भंश है; क्योंकि हमारे पास इस बात का कोई भी पका प्रमाण नहीं। मगर इतमा हम जरूर कह सकते हैं कि अगर पह किम्बदन्ती सत्य हो