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नहीं है । शातपुत्र ने मूर्छा को भी परिग्रह कहा है। दीगर श्रादि का आरम्भ साधु को सर्वथा ही न करना चाहिए। सच्चा साधु, भादर-सत्कार से अपना गौरव नहीं समझता और अनादर से क्रुद्ध नहीं होता। वह समभावी होता है। जाति, कुल, ज्ञान या चारित्र का उसे अभिमान नहीं होना चाहिए । उच्च जाति या उच्च कुल से ही त्राण नहीं होता, यह बात साधु सदा ध्यान में रखते हैं। वह अपनी प्रशंसा की अभिलाषा नहीं करता । किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं करता, निर्भय और निष्कषाय होकर विश्वरता है।
(१०) जल्दी क्या है ? आज नहीं कल कर सलेंगे, ऐसा विचार करने बाले, प्रमादी जीवों की आँखें खोलने के लिए यह अध्याय बड़े काम की चीज है। भगवान, गौतम स्वामी को सम्बोधन करके, बड़े ही मार्मिक शब्दों में क्षण मात्र का भी प्रमाद न करने के लिए उपदेश करते हैं - गौतम ! पेड़ पर लगा हुआ पका पत्ता अचानक गिर जाता है, ऐसे ही यह मानव-जीवन अचानक समाप्त हो जाता है, इसलिए पल भर मी प्रमाद न कर । कुषा की नोंक पर लटकता हुआ ओस का बूंद ज्यादा नहीं ठहरता, इसी प्रकार यह मानव-जीवन चिरस्थायी नहीं है, अतः पल भर प्रमाद न कर । गौतम ! जीवन अस्पकालीन है और वह मी नाना विघ्नों से परिपूर्ण है। इसलिए पूर्वकृत रज-कर्मों को धो डालने में पलभर भी विलम्ब न कर । मानव-जीवन, बहुत लम्बे समय में, बड़ी ही कठिनाई से प्राप्त होता है। अतः एक भी पल का प्रमाद न कर । पृथ्वीकाय, अपकाम, तेजस्काय, वायुकाय में गया हुआ जीव असंख्यात काल तक और घनस्पतिकायगत जीष अनन्त काल तक यहाँ रह सकता है, इसलिए तू प्रमाद न कर । द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव इस अवस्था में उत्कृष्ट असंख्य काल रह जाता है, इसलिए प्रमाद न कर ! पंचेन्द्रिय अवस्था में लगातार सात-आठ भव रह सकता है, अतः प्रमाद न कर । इसी प्रकार देव' और नरक गति में भी पर्याप्त समय रह जाता है। जब इन समस्त पर्यायों से बचकर किसी प्रकार असीम पुण्योदय से मनुष्य भव मिल जाय तो आयत्व की प्राप्ति होना दुर्लभ है, क्योंकि बहुत से मनुष्य, अनार्य भी होते हैं। फिर पूर्ण पंचेन्द्रियाँ, उसम धर्म की श्रुति, श्रद्धा, धर्म की स्पर्शना, मावि उत्तरोसर दुर्लभ है । शरीर जीर्ण होता जा रहा है, बाल सफेव हो रहे हैं, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती जाती है, अत: पलभर भी प्रमाव न कर । विस का उद्वेग, विशूचिका, विविध प्रकार के आकस्मिक उत्पात आदि जीवन