Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 18
________________ · ( १९ ) परित्याग करना चाहिए। दर्शन, व्रत आदि पडिमाएँ पालनीय है। प्राणीमात्र पर क्षमा भाव रखना और अपने अपराधों को उनसे क्षमा प्रार्थना करना आवश्यक है । इस प्रकार का आधार-परायण गृहस्थ भी देवगति प्राप्त करता है । छाल और चर्म के वस्त्र धारण करने वाला, नग्न रहने वाला, मूंड मुंढ़ाने वाला, अर्थात् किसी भी वेष को धारण करने से ही कोई गुरु नहीं बन सकता और न उससे त्राण हो सकता है। सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय के पहले, भोजन आदि की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। असली ब्राह्मण कौन है ? इसका उत्सर इस अध्याय में (देखो गाथा १५ से) बड़ी सुन्दरता से दिया है। यह प्रकरण अन्य श्रद्धालुओं की आंखें खोलने के लिए बहुत उपयोगी है । ( - ) इस अध्याय में विषयों की विषमता का विवेचन है । ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्रियों एवं नपुंसकों के समीप नहीं रहना चाहिए। स्त्रियों सम्बन्धी बातचीत, स्त्रियों की चेष्टाओं को देखना, परिमाण से अधिक भोजन करना, शरीर को सिंगारना आदि बातें विष के समान हैं। बिल्लियों के बीच जैसे चूहा कुमाल नहीं रह सकता उसी प्रकार स्त्रियों के बीच ब्रह्मचारी भी नहीं रह सकता। और की रात है क्या, लिके दाए नाक बेडौल हों, ऐसी सौ वर्ष की बुढ़िया का सम्पर्क भी नहीं रखना चाहिए । जैसे मक्खी रुफ में फँस जाती है उसी प्रकार विषयी जीव भोगों में फँसता है | परन्तु यह विषय शल्य के समान है, दृष्टिविष साँप के समान है। ये अल्पकाल सुख देकर अत्यन्त दुःखदाई है, अनर्थों की खान है। बड़ी कठिनाई से धीर-धीर पुरुष इनसे अपना पिण्ड छुड़ा पाते हैं। इस प्रकार इस अध्याय में ब्रह्मचर्य सम्बन्धी और भी अनेक मार्मिक और प्रभावशाली वर्णन ब्रह्मचारी के पढ़ने योग्य हैं । (६) इस अध्याय में भी विशिष्ट चारित्र का वर्णन है। सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, अतः किसी की हिंसा करना घोर पाप है । असत्य भाषण से विश्वासपात्रता नष्ट हो जाती है। बिना आज्ञा लिए छोटी से छोटी वस्तु भी नहीं लेनी चाहिए। मैथुन अधर्म का मूल है, अनेक दोषों का जनक है, अतः निग्रंथों को इससे सर्वथा बचना चाहिए। दोष मूर्च्छा का त्याग करना चाहिए। यदि साधु खाद्य सामग्री को रात्रि में रख लेता है तो वह साधुत्व से पतित होकर गृहस्थ की कोटि में आ जाता है । साधु यद्यपि निर्ममत्वभाव से वस्त्र - पात्र आदि रखते है फिर भी वह परिग्रह नहीं है, क्योंकि उसमें मूर्च्छा

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