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समझेगा? श्रुत से ही पाप-पुण्य का- 'मले-बुरे का बोध होता है। जैसे ससूत्र (बोरा सहित) सुई गिर जाने के बाद फिर मिल जाती है उसी प्रकार समूत्र (श्रुतज्ञानयुक्त) जीव संसार में भी कष्ट नहीं पाता । अज्ञानी जीय दुःखों के पात्र होते हैं। वे मूढ़ पुरुष अनन्त संसार में भटकते फिरते हैं। मगर बिता चारित्र के मी निस्तार नहीं। अनुष्ठान को जानने मात्र से दुःख का अन्त सम्भव नहीं है । जो फर्त्तव्यपरायण नहीं वे वाचनिक शक्ति से अपनी आत्मा को आश्वासन मात्र दे सकते हैं। पण्डितम्मन्य' बालजीव विविध विद्याओं का स्वामी बन जाय, विद्यानुणासन सीख ले, पर इससे उसका पाण नहीं हो सकता | ज्ञान प्राप्त कर लिया किन्तु शरीर मा इन्द्रियों के विषयों की आमक्ति दूर न हुई तो दुःख ही होता है । अतएव सिद्धि सम्पादन करने के लिए सम्परज्ञान और सम्यक्पारिन दोनों ही अनिवार्य है। मनुष्य को निर्ममत्व, निरहंकार, अपरिगही समझ का शागी, सास्ताहियों पर गालाही बनना चाहिए । लामालाभ में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में, निन्दा-नागा में, मानापमान में, जो समान रहता है, वही सिद्धि प्राप्त करता है।
(६) वीतराग देव हैं, सर्वथा निष्परिग्रही गुरु हैं, वीतराग द्वारा प्रतिपादित धर्म ही सच्चा है, इस प्रकार की श्रद्धा (व्यवहार) सम्यक्त्व है। परमार्थ वार चिन्तन' करना, परमार्थशियों की शुश्रुषा करना, मिथ्याष्टियों की संगति त्यागना, यह सम्यक्त्वी के लिए अनिवार्य है। मिथ्यावादी-पाखण्डी, उन्मार्गगामी होते हैं। रागादि दोषों को नष्ट करने वाले वीतराग का मार्ग ही उत्तम मार्ग है। ऐसी श्रद्धा सम्यग्दृष्टि में होनी चाहिए। राम्यक्त्व अनेक प्रकार से उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व के विना सम्यकशान तथा सम्यक्त्वारिष नहीं हो सकता। सम्यान होते ही जान चारित्र सम्यक हो जाते है। समाग्दृष्टि को शंका, आकांशा आदि दोषों से रहित होना चाहिए । मिथ्यादृष्टियों को आगामी भव में भी बोधि की प्राप्ति दुलंभ होती है--सम्यवष्टियों को सुलम होती है। सम्यगबोधि का लाभ करने के लिए जिन-वचनों में अनुराग करना चाहिए, ऊपर बताए हुए दोषों से दूर रहना चाहिए।
(७) पांच महावत, कर्म का नाश करने वाले है । पन्द्रह कर्मादानों का
१ कर्मादानों का विवरण सामाजिक साम्यवाद की दृष्टि से भी पढ़िए ।
समाज की सुलगनी हुई समस्याओं का यह पुराना समाधान है।