Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 15
________________ (१) समस्त आस्तिक दर्शनों की नीव आत्मा पर अवलम्बित है। संसार रूपी इस अद्भुत नाटक का प्रधान अभिनेता आत्मा ही है, जिसकी बदौलत भाँति-भांति के दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। अतएव प्रथम अध्याय में प्रारम्भ में आत्मा सम्बन्धी सूक्तियां है । आत्मा अजर-अमर है, रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित होने के कारण वह अमूर्त है---इन्द्रियों द्वारा उसका बोध नहीं हो सकता। मगर वह मूर्त कर्मों से बद्ध होने के कारण मूत्त-सा हो रहा है । आत्मा के सुख-दुःख बात्मा पर हो आश्रित है। आत्मा स्वयं ही अपने दुःख-सुखों की सुष्टि करता है। वहीं स्वयं अपना मित्र है और स्वयं शत्रु है । आत्मा जब दुरात्मा बन जाता यह प्रापी शत्रु रानी कार होता है । सताव संसार में यदि कोई सर्वोत्कृष्ट विजय है तो वह है-अपने आप पर विजय प्राप्त करना । जो अपने आप पर विजय नहीं पाता किन्तु संग्राम में लाखों मनुष्यों को जीत लेता है उसकी विजय का कोई मूल्य नहीं। आत्मा का स्वरूप ज्ञान-दर्शनमय है। ज्ञान से जगत के द्रव्यों को उनके बास्तविक रूप में देखना-जानना चाहिए। अतएव आत्मा के विवेचन के बाद नव तत्वों और द्रव्यों का परिचय कराया गया है ।। (२) अगत् के इस अभिनय में दूसरा भाग कर्मों का है। कर्मों के चक्कर में पड़कर ही आस्मा संसार-परिभ्रमण करता है । कर्म आठ हैं -(१)मानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र, (८) अन्त राय । कर्मों के कितने भेद हैं, कितने समय तक एक बार बँधे हुए कर्म का आत्मा के साथ सम्पर्क रहता है, यह इस अध्ययन' में स्पष्ट किया गया है। कर्मों का करना हमारे अधीन है पर मोगना हमारे हाथ की बात नहीं । जो कम किए हैं, उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता । बन्धु-बान्धव, मित्र, पुत्र, कलत्र आदि कोई इसमें हाथ नहीं बंटा सकता। मोहनीय कर्म इन सब का सरदार है। यह कर्मसत्य का सेनापति है। जिसने इसे परास्त किया उसे अनन्त आत्मिक-साम्राज्य प्राप्त हो गया। शग और द्वेष ही दुःख के मूल है। अतएव मुमुक्षु जीवों को सर्वप्रथम मोहनीय कर्म से ही मोर्चा लेना चाहिए। (३) मनुष्यभव बड़ी कठिनाई से मिलता है । यदि वह मिल भी जाय तो फिर सद्धर्म की प्राप्ति आदि अनुकूल निमित्तों का पा सकना और मी मुश्किल है । जिसे यह दुर्लभ निमित्त मिले हैं उन्हें प्रमाद न कर धर्माराधन करना

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