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चाहिए। कौन जाने कब क्या हो जायगा अतः वृद्धावस्था आने से पूर्व व्याधि होने से पहले और इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होने से प्रथम ही धर्म का आचरण करना है। समाचापस लौटकर आने वाला नहीं। धर्मात्मा का समय ही सफल होता है। धर्म वही सत्य समझना चाहिए जिसका वीतराग मुनियों ने प्रतिपादन किया है। धर्म ध्रुव है, नित्य है ।
(४) आत्मा विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करता है। नरक गति में उसे महान् क्लेश भोगने पड़ते हैं । तिर्यंच गति के दुःख प्रत्यक्ष ही हैं। मनुष्य गति में भी विश्रान्ति नहीं - इसमें व्याधि, जरा, मरण आदि की प्रचुर वेदनाएँ विद्यमान है। देव गति भी अल्पकालीन है । इन समस्त दुःखों का अन्त वे ही पुण्य-पुरुष कर सकते हैं जो धर्माराधना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं । सिद्धि प्राप्त करने के लिए कृत-पापों का प्रायश्चित करना चाहिए। तपस्या, निलमता, परीषद् सहिष्णुता, ऋजुता, धैर्य, संवेग, निष्कामता, आदि सात्त्विक गुणों की वृद्धि करनी चाहिए। प्राणातिपात, असत्य, बदत्तादान, मैथुन, मूर्च्छा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, ष, कलह, पर-परिवाद आदिआदि पापों का परित्याग करना चाहिए। असदाचरण से मुक्त और सदाचरण में प्रवृध होने से मनुष्य का कर्म-लेप हट जाता है और वह ऊर्ध्व गति करके लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है । उठना बैठना, मोना आदि प्रत्येक क्रिया विवेक के साथ करनी चाहिए | इसी प्रकरण में लोक- प्रचलित बाह्य क्रियाकाण्ड के विषय में भगवान कहते हैं
तपस्या को अग्नि बनाओ, आत्मा को अग्नि स्थान बनाओ, योग को की करो, शरीर को ईंधन बनाओ, संयम - व्यापार रूप शान्ति पाठ करो, तब प्रशस्त होम होता हूँ ।
हम सदा स्नान करते हैं, परन्तु वह हमारे अन्तःकरण को निर्मल नहीं बनाता । बाह्य शुद्धि से अन्तर-शुद्धि नहीं हो सकती । भगवान कहते हैं - आत्मा में प्रसता उत्पन्न करने वाले शान्ति तीर्थं धर्मरूपी सरोवर में जो स्नान करता है वही निर्मल, विशुद्ध और ताप हीन होता है ।
(५) ज्ञान पाँच प्रकार का है- (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्यवज्ञान और ( ५ ) केवलज्ञान | अनुष्ठान करने से पहले सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है जिसे तस्व-ज्ञान नहीं वह श्रेय अश्रेय को क्या