Book Title: Nayopdesh Part 02 Tarangini Tarni
Author(s): Yashovijay Gani, Lavanyasuri
Publisher: Vijaylavanyasuri Gyanmandir
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________________ . . नयाततरजिया सरक्षिणापि ती मयोपदेशः / विषयः पत्र-पतिः विषयः पत्र-परि पक्तिरूपकार्याक्षया, न तु पक्कानां // अथ प्रशस्तिः // भवोपग्राहिणां क्षपणरूपकार्यमाश्रित्येति 298 तत्र नयोपदेशटीकेयमित्यादिभिः श्लोकैः / प्रपञ्चितम् / 4127 पञ्चमिः समूलाया नयामृततरजिण्याः 291 विभिन्न विषयाभ्युपगमप्रकारोपष्टम्भक स्तुतिः। तया स्वरूपशुद्धिप्राहकनय-फलशुद्धि. 299 लौकिकबोध-नयबोध-प्रमाणबोधानां ग्राहक नया-ऽनन्तरकारणग्राहकनया क्रमेणैतद्ग्रन्थप्रभवाणां प्रथमत ऽऽक्षेपकारणग्राहकनय-मुख्यैकशेषनय. इत्यादिषष्ठ-सप्तमश्लोकाभ्यां पुमर्थग्राहकनय-परमभावप्राहकनय-कारक- . वैचित्र्योपवर्णनम् / सम्यक्रशरीरनिर्वाहकत्वनय-सम्यक्रिया 3.0 त्रिभिरुक्तबोधैर्लोकोत्तरमार्गद्यपरिशरीरनिर्वाहकत्वनय-ज्ञाननाशव्याप्यनाश ज्ञानत इहलोकपरलोकभयनिवृत्तिः, . . . प्रतियोगित्वप्राहकशुबनय व्यापारप्राधान्य शब्दस्य विरम्य बोधकत्वं चोपपत्तिप्राहकक्रियानय र्दशनप्राधान्यग्राहकज्ञान मदिसटमपद्येन दर्शितम् / 418 1 नयानां क्रमेणोपदर्शनम् / 301 शब्दजन्यबोधविषयनियमन शब्दस्य : 292 कुर्वद्रूपत्वनये शैलेश्यन्तक्षणभाविचारित्र. . तत्परत्वतो भवति, तेन तात्पर्यशमेव मुक्तिकारणमित्याशङ्काया निरा तदज्ञपुरुषयोः शान्दबोधभेद इत्यु... करणम् / पदर्शक नवम पद्यम् / 293 चारित्रक्षणस्य मुक्तावुपादानत्वेन हेतु 302 शुकोच्चरितवाक्ये उच्चारयितुः शुकस्य त्वमित्यस्यायुक्तत्वव्यवस्थापनम् / 14 4 / / तात्पर्याभावेऽपि ततः शब्दबोधोत्पादन व्यभिचारेण तत्परत्वज्ञानं न तत्र 294 शब्द सूत्रनयाना मुक्ति प्रति चारि. कारणमित्याशङ्कानिराकरणपरं दशमं त्रस्यैव कारणत्वमित्यर्थकस्य "सद्दुज्जु. पद्यम् / 418 5 सुआणां" इति नियुक्तिवचनस्य कथ 303 यत्र वक्तुः शुकादेस्तात्पर्य नास्ति मुपपत्तिरित्याशङ्काया निराकरणम्। 4146 तत्रापि तदध्यापकस्य सर्वज्ञस्य वा 195 क्रियाया अपि मुक्ति प्रतिहेतुत्वव्यव तात्पर्य ज्ञात्वा शाब्दबोधः, तत एव स्थापनेन तत्त्वज्ञानमेव मुक्तिहेतुरिति चाप्रमाणेऽपि वाक्ये प्रामाण्य सम्यगूमिथ्यादृष्टिमतस्य निराकरणम् , तत्र दृशां मतमित्युपदर्शकमेकादशपद्यम् / 419 1 मिथ्याज्ञानोन्मूलने तत्त्वज्ञानवत् 304 तात्पर्यज्ञानस्य कारणत्वादेव सम्यक्क्रियाया अपि हेतुस्वं व्यवस्थापितम् / 415 2 श्रुतस्य मिथ्यार्थे मिथ्यादृष्टेस्तात्पर्य ग्रहतोऽप्रमाजनकत्वादप्रामाण्यं, मिथ्या२९६ उक्काथै वासिष्ठगतस्यासुरवचनस्य श्रुतस्यापि सम्यगदष्टेः सम्यगर्थे "तण्डुलस्य यथा चर्मेत्यादिवचनस्य तात्पर्यप्रहतः प्रमाजनकत्वात् प्रामाण्यसंवादफलतयोपदर्शनम् / 15 8 मित्यावेदक द्वादशपद्यम् / 191 297 ज्ञान-कर्मणोर्मुको तुल्यतया युगपदेव हेतुत्वतः 305 श्रुतार्थविषयकज्ञानजनकत्वेन लौकिक समुच्चयपक्षस्य निगमनम् / 151. वाक्यानामपि प्रामाण्यं, सप्तमात्मकं 10. 3
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