Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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अनुकरणीय है। अपने पितृव्य देवचन्दजीके पुत्र भौमसिंहजी एवं मोतीलालजीका तरुणावस्थामें ही स्वर्गवास हो गया था। अतः आपने अपनी दोनों भौजाइयोंकी आजीवन सेवा की। अपने अग्रज भ्राता श्री दानमलजीकी आपने जो सेवा की, वह अन्यत्र दुर्लभ है । आप उनके प्रत्येक आदेशको शिरोधार्य करते थे और उनकी हर इच्छाकी सम्पूर्ति करना अपना प्रथम कर्तव्य समझते थे। आपने उनके नामको अमर बनानेके लिए अपने पुत्र श्री मेघराज नाहटाको दत्तक पुत्रके रूपमें सौंप दिया और इस प्रकार अपने अग्रजकी निःसंतानत्वकी वेदनाको भी उन्मूलित कर दिया। इसी प्रकार अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री लक्ष्मीचन्द्रजीकी बहकी भी आपने आजीवन सेवा की और उनकी पुत्रियोंके विवाह आदिका सारा कार्य बड़ी लगनसे सम्पन्न किया । अन्तमें श्री लक्ष्मीचन्दजीके नामको अमर रखने के लिए पहिले अपने पुत्र अभयराजजीको और उनके स्वर्गवासी होनेपर अपने बड़े पौत्र भंवरलालजी को उनके गोद दिया।
श्री शंकरदानजी नाहटा परम धर्मानुरागी थे। नियमित सामायिक और पूजा-पाठ करना आपके जीवनका एक आवश्यक अंग बन गया था । दैनिक धर्म-क्रिया सम्पादित करनेसे पूर्व आप जल तक ग्रहण नहीं करते थे। जिनदर्शन, व्याख्यानश्रवण, व्रत-उपवास-आचरण आपके जीवनका अंग बन गया था और आप इस पक्षको अधिक-से-अधिक परिपुष्ट बनाने के लिए कृतसंकल्प थे। __ आपने चिरकाल तक चतुर्दशीका व्रतोपवास किया और उसको पालन करते हुए ही आप उसी तिथिको कीत्तिशेष बन गये।
आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजीके सं० १९८४में बीकानेर पधारनेपर आपने व आपके बड़े भाईजी ने उन्हें अपने स्थानमें ही ठहराकर बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे उनकी सेवा-शुश्र षा की । आपने इतर समागत साधुओंकी सेवा करने में भी अतीव तत्परता दिखलाई ।
___ श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजीके उपाश्रयका निर्माण एवं ज्ञानभण्डारकी देखभाल आपने जिस निष्ठा और लगनसे की, उसकी अद्यावधि सुचर्चा होती है। श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरि धर्मशालाके आप ट्रस्टी थे। इसी प्रकार बड़े उपाश्रयके ज्ञानभण्डारके भी आप व श्री दानमल जी ट्रस्टी रहे। स्थानीय जैन श्वेताम्बर पाठशालाके आप सभापति थे।
आपने एकाकी, सपरिवार और इतर इष्टमित्रोंके साथ अनेक बार तीर्थयात्राएँ की थीं। आप सहयात्रियोंकी सेवा करना महत् पुण्य कार्य समझते थे और ऐसे शुभ अवसरको कभी हाथसे नहीं निकलने देते थे। अनेक तीर्थों और मन्दिरोंके जीर्णोद्धार एवं सुव्यवस्थाके लिए भी आपने स्वोपाजित द्रव्यका अच्छा सद्व्यय किया था।
आप परम परोपकारी वत्तिके व्यक्ति थे। जब भी आप किसी अभाव-ग्रस्त प्राणीको पाते, आप उसके अभाव-संकटको दूर करनेके लिए कृत-संकल्प हो जाते और आपको तभी प्रसन्नता होती, जब दुःखी व्यक्ति सुखी हो जाता। ग्रामीणोंकी अभावभरी आत्मकथाएँ आप बड़े ध्यान और मनोयोगसे सुनते थे और अपनी शक्ति-सामर्थ्यके अनुसार उनकी सहायता भी करते थे।
नाड़ी और औषधिका आपको अच्छा ज्ञान था । मियादी-बखारके तो आप विशेषज्ञ समझे जाते थे। रात-दिन आपके द्वार रुग्णोंके लिए खुले थे। जब भी कोई रोगी आया, आपने उसकी तन-मन और धनसे सेवा की। रोग-निदान और निवारण आपकी परोपकारी-वृत्तिका अभिन्न अंग बन गया था। इसलिए आप रोगीसे कुछ भी नहीं लेते थे, हाँ अभावग्रस्त रोगी या उसके परिवारको देते अवश्य थे ।
जीवन परिचय : १७
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