Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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संतति
सुयोग्य पिताकी सन्तान भी प्रायः गुणवान् और योग्य ही होती है । सं० १९४९ में आपके प्रथम कन्या सोनकुंवर बाई उत्पन्न हुई जो बहुत ही मिलनसार, धर्मिष्ठ और गृहकार्य दक्ष थी । सं० १९५२ में आपके ज्येष्ठ पुत्र श्री भैरूदानजीका जन्म हुआ । आप बीकानेरीय जैन समाजके ठोस कार्यकर्ता के रूपमें शनैः-शनैः ख्यातिप्राप्त हुए ।
भैरुदान - परिचय
सामाजिक उन्नति के लिए कार्यरत रहना आपकी अभिरुचि थी । आप सौम्य और सौजन्यकी साक्षात् मूर्ति थे । ओसवाल समाज में रीति, नीति और मर्यादाओंके सुन्दर स्वरूप संरक्षण में आप सतत प्रयत्नशील रहते थे । आपने अपने मित्रोंके सहयोग से 'शिक्षा प्रचारक जैन सभा'को जीवन दान दिया और 'श्री महावीर जैन मंडल' के नामसे उसे ख्याति प्रदान की । बीकानेर के ओसवाल समाजके उन्नयन में इस संस्थाका बहुत बड़ा योग है । आपने आजीवन इस संस्थाकी सेवा की । आप 'होली' पर्वको आदर्श पर्व के रूपमें मनानेके पक्षधर थे । होलिका दस दिन पूर्व अपने सहयोगियोंके साथ आप गाड़ी में सुसज्जित वाद्य यंत्रोंपर होली सुधारक गायन गाते हुए प्रत्येक मोहल्ले में घूमते और सदाचारका प्रचार करते थे ।
उन दिनों कलकत्तामें खादी आन्दोलनका जोर था । महात्मा गान्धीका शंख महाध्वनिसे राष्ट्रको जगा रहा था । आपपर भी देशभक्तिकी छाप पड़ी और खादी पहिननी आरम्भ कर दी । ( बीकानेरकी अत्यन्त कठोर राजशाही गंगाशाहीके उच्चपदाधिकारियोंकी दमन-दृष्टि आपके खद्दरधारी स्वरूपपर भी पड़ी, लेकिन आपपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा) और आपका खादी पहिनना यथावत् चालू रहा ।
आपने जैन श्वेताम्बर पाठशाला के माध्यम से भी समाज और शिक्षाकी सेवा सम्पादित की। आप इस संस्था सभापति और उपसभापति पदको अनेक बार सुशोभित कर चुके थे । श्री महावीरमंडल के भी आप सभापति, सचिव और सदस्य रहे थे। आप निरभिमान और कर्मठ कार्यकर्त्ता थे । सार्वजनिक कार्योंको अपने हाथोंसे करने में आप गौरव अनुभव करते थे । आपका विनयशील और धार्मिकस्वरूप बड़ा ही प्रेरक था । अभिवादन शैली में मोहकता थी और विवेकमें गहन चिन्तन मन्थन । और आप मान प्रतिष्ठाके भूखे नहीं थे, समाज-सेवा के प्रत्येक कार्यमें आप आगे रहते थे ।
निरन्तर कठोर परिश्रमका आपके स्वास्थ्यपर कुप्रभाव पड़ा और आप लीवर के रोगसे पीड़ित रहने लगे । औषध उपचारका कोई सुपरिणाम दृष्टिगत नहीं हुआ। आप अस्थिमात्रावशेष रह गये । वाणी भी बन्द हो गई । लेकिन आपका अन्तर्ज्ञान निरन्तर बना रहा । धार्मिक स्तवन, सज्झाय आप बराबर सुनते रहे । कात्तिक शुक्ला पूर्णिमाको भगवान्की सवारी जब नाहटोंकी गवाड़में पधारी तब अकस्मात् प्रभु कृपासे आपकी वाणी खुल गई । इसीको कहते हैं, 'मूकं करोति वाचालम्' मूक होहि वाचाल आप भगवान्की भेंट-दर्शन और सवारीमें सम्मिलनके लिए पारिवारिकोंको आग्रहपूर्वक आदेश देने लगे। उसी समय समाजके धनी-मानी - प्रतिष्ठित व्यक्ति आपसे मिलने भी आये । अन्तमें मिती मार्गशीर्ष कृष्णा तृतीया सं० २०१५ को अपनी आत्माको धर्ममें स्थिर रखते हुए, धार्मिक प्रवचनोंको सुनते हुए लगभग ८-४५ पर आपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया । और आप शुभ ध्यानके प्रभावसे स्वर्ग में देवरूप में उत्पन्न हुए । स्मरण करनेवालोंको आप समय-समयपर साहाय्य करते रहते हैं ।
आपके निधन से समाजने उच्चकोटिका विचारक, निष्काम सेवाव्रती और कर्मठ कार्यकर्ता खो दिया । सफल जीवन उसी व्यक्तिका है; जो अपने बान्धवोंको सहारा देता है, और उन्हें जीनेके सुन्दर अवसर प्रदान करता है । अपना पेट तो सभी पाल लेते हैं, लेकिन उन्हें आदर्श नहीं कहा जा सकता है -
जीवन परिचय : १५
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