Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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चुका था। रामदेव पांडेको भग्न शिखरसे भीतर उतारा गया, जब प्रभु-प्रतिमा सुरक्षित मिली तो अपनेको धन्य माना । प्रभु-प्रतिमाजी बाहर निकाल कर अस्थायी स्थानमें विराजमान की गई। फिर मानवकी प्राथमिक आवश्यकताओंकी सम्पूति हेतु सबकी दुकानें सँभाली ।
कहते हैं कि खोजीको राम मिलता है, उसने अपने गुमाश्ता चतुरभुजजी गुलगुलियाको बेहोश पाया, जिन्हें कम्बलमें लपेटकर उपचारपूर्वक सचेत किया। इस अन्वेषणमें आपको सीरेसे भरी हुई एक कढाई हाथ लगी । शंकरदानजी कुछ मारकीनके थान व सीरेकी कढ़ाई लेकर पहाड़पर पहुँचे और कड़ाकेकी ठंढमें संत्रस्त लोगोंको सीरा खिलाया व थानोंके टुकड़े फाड़-फाड़कर यह कहते हुए वितरित कर दिया कि “लो, जीवो तो यह वेष्टन है और मरो तो कफन है। आपकी इस साहसभरी सेवाने चतुर्दिक आशीर्वाद तो प्राप्त किया हो साथमें आपका यश भी फैला । गवालपाड़े और बीकानेरमें आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई।
धर्माराधनके लिए जिनालय-निर्माणकी सर्वप्रथम आवश्यकता थी, जब वह विशाल मन्दिर बनकर तैयार हुआ तो विचार हुआ कि मन्दिरके योग्य मूलनायक भगवान्की बड़ी प्रतिमा चाहिए। आपने इसके लिए कई स्थानोंमें भ्रमण किया पर जहाँ जाते यही स्वप्न होता कि मूलनायक वही रहेंगे। अन्त में निराश लौटकर अपने विशेष प्रिय उपकेशगच्छीय श्री पूज्यजीसे मिले जो नाहटागोत्रीय होनेसे आपको बहुत मानते थे। श्री पूज्यजीने अपने देहरासरसे प्रतिमाएँ देना स्वीकार किया और महत भी निकाल दिया, अन्तमें समस्त तैयारी हो गई तब रवानगीके समय उनसे भी निराशा ही हाथ लगी। आपने श्री पूज्यजीको प्रचुर भेंट करनेका प्रस्ताव रखा पर उन्होंने कहा, तुम्हारे और हमारे बीच निछरावल(भेंट)का प्रश्न नहीं है पर वस्तुतः वही जो मलनायक भगवान पार्श्वनाथ हैं वे ही रहेंगे । अन्तमें सं० १९६८ में आपके बड़े भ्राता श्री दानमलजी नाहटाकी सपत्नीक उपस्थितिमें उपाध्याय जयचन्द्र श्रीगणिके हाथसे प्रासाद-प्रतिष्ठा व बिम्ब-स्थापना अनुष्ठित हुई।
गवालपाड़ेके पार्श्वनाथ मन्दिरकी प्रतिष्ठा और सुव्यवस्थामें श्री शंकरदानजीकी दूरदर्शिता बड़ी लाभकारी सिद्ध हुई। उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रभावसे तत्स्थानीय लोगोंको समझा-बुझाकर सरसोंपर तीन आना सैकडा धार्मिक लाग (वित्ती) बाँध दी, आगे चलकर कुस्टे (पाट, जूट) की आमदनी अधिक होनेपर कुस्टेपर भी यह लाग प्रारम्भ कर दी गई, जिससे किसीपर व्यक्तिगत बोझ नपड़कर सहज ही मन्दिरजी, ठाकुरबाड़ी, रामदेवालयके मन्दिरके सारे खर्च निकलनेके अतिरिक्त हजारों रुपये भी जमा हो गए।
व्यापारका मूल आधार सद्व्यवहार और प्रामाणिकता है। आप इस तथ्यसे पूर्णतः अवगत थे, इसलिए इन दोनों अमूल्य रत्नोंको आपने सतत व्यवहारमें प्रयुक्त किया। फलस्वरूप व्यापारका स्वतः विस्तार होने लगा । लोग आपकी सचाई, तोल-मोलकी प्रामाणिकता और वितण्डावादमें न फंसानेकी नीतिसे प्रभावित होकर आपसे ही व्यापार-सम्बन्ध बढ़ानेके लिए लालायित रहने लगे। अगर तौलमें कहीं झगड़ा खड़ा होता है तो आज भी इसी फर्मके कांटे बटखरोंसे तौलकर निर्णय किया जाता है। आपकी गद्दियाँ धर्मघरके नामसे प्रामाणिकताके लिए प्रसिद्ध है।।
गवालपाडेका पौधा तो आपश्रीके बाबाजी व पिताजीने लगाया था, पर आपके समयमें वह खूब फला-फूला और उसकी शाखाका विस्तार अनुदित होने लगा। सं० १९५८ में गवालपाड़ेसे १५ मील चापड़ नामक स्थानमें, संवत् १९६५ में बोलपुरमें, सं० १९६८ में कलकत्ता, सं० १९८० में दीपावलीके दिन सिलहट और सं० १९९१ में बाबूरहाटकी दुकानोंकी स्थापना हुई। आपके स्वर्गवासी होनेके पश्चात् भी हाथरस, अमृतसर और बम्बईमें फर्म स्थापित हुए थे। सिलहट और बाबुरहाट पाकिस्तानमें पड़ जानेपर सिलघर, करीमगंज, अगरतला और कानपुर में व्यापार केन्द्र खोले गए । यह सब आपका ही पुण्य-प्रभाव है।
१४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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