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(ग) भवानवर्द्धते भयं, तस्मात् माहन माहनेति ।' अर्थात् हे राजन् तुम ( राग द्वेष द्वारा ) जीते गये हो, उनका भय बढ रहा है अतः श्रात्म गुणों को हणो न हणायो ।' यह सुन कर के भरत राजा को वैराग्य बढता था, प्रात्मा विषय से हटता था । जैन वेद प्रागम निगम पढते पढाते थे ।
लदा "माहण माहण" का उच्चारण करने मे महाणा कहलाने वाले वृहत् श्रावकों की पहचान के लिये राजा ने रत्नत्रय रूप कांकिणी रत्न की तीन नार वाली जिनोपवीत धारण कराई । समय के परिवर्तन के अनुसार भरत के पुत्र सूर्ययशा ने स्वर्ण की बाद में महायशा ने चांदी की अतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, कीर्तिवीर्य, जलवीर्य, दण्डवीर्य प्रादि गजाओं ने अपनी स्थिति के अनुसार परिवर्तन किया । राजाओं के पूजनीय होने से प्रजा ने भी उन्हें पूजनीय गिना व गृहस्थ गुरु की पदवी से विभूषित किया।
नवम तीर्थकर सुविधिनाथ भगवान के पश्चात् देशव्यापी काल पडा व सर्व शास्त्र व धर्मगुरुत्रों का विच्छेद हुमा उसवक्त महाणा लोगों ने समाज की धर्म की रक्षा कर धर्म का रतण किया, संयमी साधुओं का विच्छेद होजाने से ये गृहस्थ गुरु उनका वेष धारण कर प्रचार करते थे अतः असंयति की पुजा का वर्णन शास्त्रों में प्राता है । कल्प सूत्र में इनका जगह जगह वर्णन पाता है । ऋषभदत्त महाणा ने देवानन्दा के स्वप्नों का फल जानने
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