Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा • २२]
हिदिविहत्तीए श्रद्धाछेदो जोदिसियादि जाव सव्वह० वेउव्विय-वेउब्वियमिस्स-आहार-आहारमिस्स०अकसाय-विहंग०--परिहार० -जहाक्खाद०--संजदासंजद-तेउ०--पम्म०-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि० वक्तव्वं ।
१६. तिरिक्ख० मोह० जह० सागरोवम सत्तसत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया । एवं सव्वएइंदिय-पंचकाय०-ओरालियमिस्स-कम्मइय०मदि-सुदअण्णाण०-असंजद-तिण्णिले०-अभव०-मिच्छा०-असण्णि०-अणाहारि त्ति । सव्वविगलिंदिय० मोह० जह० सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपण्णासाए सागरोवमसदस्स सत्त सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणया । तसअपज्ज. बेइंदियअपज्जत्तभंगो।
$ १७. वेदाणुवादेण इत्थि०-णस० मोह० संखेजाणि वस्ससहस्साणि ।
अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर होती है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, वैक्रियिककाययोगी,वैक्रियिकमिश्रकाययोगी,आहारककाययोगी आहारकमिश्र काययोगी अकषायी,विभंगज्ञानी,परिहारविशुद्धिसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले,वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिए ।
विशेषार्थ-यहाँ जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें स्थितिबन्ध और प्राक्तन सत्त्व अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण भी सम्भव होनेसे इनमें मोहनीयका जघन्य अद्धाच्छेद उक्त प्रमाण
१६. तिर्यञ्चोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम सात भागप्रमाण है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिए। सभी विकलेन्द्रिय जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्रमसे पच्चीस, पचास और सौ सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भाग कम सात भाग प्रमाण है। त्रस लब्ध्यपर्याप्तकोंके द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान जघन्य स्थिति जाननी चाहिए ।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मोहनीयका अघन्य स्थितिसत्त्व पल्यका असंख्यातवां भाग कम एक सागर प्रमाण प्राप्त होता है और एकेन्द्रिय तियञ्च ही होते हैं, इसलिए इनमें मोहनीयका जघन्य अद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ अन्य एकेन्द्रिय आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उन मार्गणावाले जीव भी एकेन्द्रिय हो सकते हैं इसलिए उनका कथन उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय आदिकके जघन्य स्थितिसत्त्वको ध्यानमें रखकर उनमें मोहनीयका जघन्य अद्धाच्छेद पल्यका संख्यातवाँ भाग कम क्रमसे पच्चीस, पचास और सौ सागर कहा है।
६१७. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके मोहनीय कर्मकी जघन्य स्थिति संख्यात हजार वर्ष है । पुरुषवेदी जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति संख्यात
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