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कर्म विज्ञान पर जैन आचार्यों ने अनेक विशालकाय ग्रंथों की रचना की है, जीव और जगत की प्रत्येक स्थूल, सूक्ष्म एवं अतिसूक्ष्म क्रिया को, क्रिया के फल को, भूत-वर्तमान भविष्य तीनों काल की संगति बिठाकर कर्म को व्याख्यायित किया है।
कर्मवाद, कर्म-सिद्धान्त, कर्म - रहस्य आदि अनेक ग्रंथों के अनुशीलन के पश्चात् यदि आप प्रस्तुत "कर्म विज्ञान" को पढ़ेंगे तो इसमें आपको अनेक प्रकार के जीवंत तथ्य, तथ्यपूर्ण विवेचन एवं तर्कसंगत, प्रमाण पुरस्सर शैली का दर्शन होगा। स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के विद्वान मनीषी उपाचार्य देवेन्द्र मुनि जी ने अपने अब तक के अध्ययन का नवनीत सरल और सहज शैली में इस पुस्तक में प्रस्तुत कर दिया है। उपाचार्य श्री जी एक गंभीर विद्वान हैं। उनकी भाषा बहुत ही सहज, प्रवाहपूर्ण और विषयानुरूप है। कर्म सिद्धान्त के विवेचन में शास्त्रीय और वैज्ञानिक दृष्टि का सुन्दर समन्वय किया गया है। अनेक विद्वानों के तर्कयुक्त प्रतिपादन का सार भी इसमें संकलित है। कर्म विज्ञान का प्रथम एवं द्वितीय भाग कुछ समय पूर्व प्रकाशित हो चुका है। अब यह तृतीय भाग मेरे समक्ष है । इसमें आनव और संवर इन दो तत्त्वों पर विवेचन किया गया है।
संवर तत्त्व को सम्यग् रूप में समझने पर ही मोक्ष तत्त्व की उपलब्धि हो सकती है । आम्रव को रोकने वाली और बन्ध को न होने देने वाली प्रक्रिया का नाम संवर है। अतः आम्नव के साथ संवर तत्त्व का विवेचन सुन्दर रीति से हुआ है। व्यापक दृष्टि से विद्वान लेखक ने बहुत श्रम पूर्वक जो विवेचन किया है - वह पठनीय एवं मननीय है। यह ग्रन्थ जैन कर्म साहित्य के ग्रंथों में विशिष्ट स्थान प्राप्त करेगा । ऐसा, विश्वास है।
जैन भवन आगरा
२५-१०-९१
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- विजय मुनि शास्त्री
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